Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 29
________________ २० भक्तामर स्तोत्र (गुणाः) गुण (त्रिभुवनम्) तीनों लोकों को (लंघयन्ति) लांध रहे हैं—सर्वत्र फैले हुए हैं । (ये) जो (एकम्) मुख्य रूप से (त्रिजगदीश्वरनाथम ) तीनों लोकों के नाथ के ( संश्रिता) आश्रित हैं, उन्हें ( यथेष्टम् ) इच्छानुसार (संचरतः) विचरण करते हुए (कः) कौन (निवारयति) रोकता है ? कोई नहीं रोक सकता ॥१४॥ भावार्य-हे त्रिभुवन के नाथ ! पूर्णमासी के चन्द्र की कलाओं के समूह के समान आपके अत्यन्त निर्मल गुण त्रिभुवन में सव ओर व्याप्त हो रहे हैं--- फैले हुए हैं। ठीक है, जो आप जैसे विश्व के एकमात्र अधिष्ठाता प्रभु का आश्रय पाए हुए हैं, उन्हें इच्छानुसार विचरण करने से भला कौन रोक सकता है ? कोई नहीं। टिप्पणी अपनी इच्छानुसार अव्याहतगति से त्रिभुवन में प्रसार पाने वाले आपके सद्गुणों को रोकने की शक्ति किसी में भी नहीं है, प्रभो ! आपके उन दिव्य गुणों को मुझ में क्यों न आने दो? । भगवान् के अनन्त गुण तीनों लोक में विचरण करते हैं। इसका अभिप्राय यह है, कि भगवान् के गुण तीन लोक में सर्वत्र गाये जाते हैं। अन्यथा दार्शनिक दृष्टि से आत्म के गुण आत्मा में ही रहते हैं, आत्मा से बाहर नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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