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भक्तामर-स्तोत्र
२१ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिर्
नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गन् । कल्पान्त - काल - मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलित कदाचित् ।१५॥ अन्वयार्थ- (यदि) अगर (ते) आपका (मन) मन (त्रिदशांगनाभिः) देवांगनाओं के प्रदर्शन से (मनाअपि) जरा-सा भी ( विकारमार्ग न नीतम् ) विकार भाव को प्राप्त नहीं हो सका, तो (अत्र) इस बात में (किम् चित्रम्) आश्चर्य ही क्या है ? (चलिताचलेन) पहाड़ों को भी हिला देनेवाले (कल्पान्तकालमरुता) प्रलयकाल के झंझावात द्वारा (किम् ) क्या (कदाचित्) कभो (मन्दराद्रिशिखरम्) मेरु पर्वत का शिखर ( चलितम् ) हिलाया जा सकता है ? कभी नहीं ॥१५॥
भावार्थ-हे वीतराग ! स्वर्ग की अप्सराओं ने आकर आपके समक्ष विभ्रम-विलास का खुलकर प्रदर्शन किया, परन्तु वे आपके विरक्त मन को क्षण - भर के लिए भी विकार के पथ पर न ले जा सकी, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
प्रलयकाल के महावायु ने असंख्य बार बड़े - बड़े विशालकाय पर्वतों को भी उखाड़ कर चकनाचर कर
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