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भक्तामर स्तोत्र
को सम्पूर्ण रूप से जीत लिया है, वह (ते वक्त्रम्) आपका मुख (क्व) कहाँ और (कलंकमलिनम्) कलंक से मलिन (निशाकरस्य) चन्द्रमा का (तद् विम्बम्) वह मण्डल (क्व) कहाँ, (यत्) जो (वासरे) दिन में (पलाश-कल्पम्) ढाक के पत्ते की तरह (पाण्ड) पीला-फीका (भवति) हो जाता है।
भावार्थ-भगवन् ! आपके मुखमण्डल को चन्द्रमण्डल से उपमा देना, क्या कोई ठीक बात है ? नहीं, कदापि नहीं। भला देव, मनुष्य और नाग कुमारों के नेत्रों को मोहित करने वाला एवं तीनों जगत् की ऊँची से ऊँची उपमाओं को पूर्णरूप से पराजित कर देनेवाला आपका सदा प्रकाशमान सुन्दर मुख कहाँ ? और कहाँ वह कलंक से मलिन चन्द्र-मण्डल, जो कि दिन में ढाक के पीले पड़े हुए पत्ते के समान सर्वथा निस्तेज हो जाता है ? सम्पूर्ण - मण्डल - शशाङ्क - कलाकलाप
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर ! नाथमेकं ,
कस्तान निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥
अन्वयार्थ-(सम्पूर्णमण्डल-शशांककलाकलापशुभ्रा) पूर्ण चन्द्रमण्डल की कलाओं के समान स्वच्छ (तव) आपके
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