Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 32
________________ भक्तामर स्तोत्र भावार्थ-हे नाथ ! आप जगत् को प्रकाशित करने वाले एक अलौकिक दीप हो, आपको न बात्ती की आवश्यता है, न तेल की अपेक्षा है, न आप से धुंआ ही निकलता है। अर्थात् आप बाह्य अपेक्षाओं तथा दोषों से मुक्त निर्मल ज्योति हैं। बड़े-बड़े पर्वतों को कंपित कर देने वाला झंझावात भी आप पर कुछ असर नहीं कर सकता। दीपक, घर के किसी एक कोने को ही प्रकाशित करता है, किन्तु आप तो सम्पूर्ण तीनों जगत् को एक साथ आलोकित करते हैं। नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदरनिरुद्ध - महाप्रभावः सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र ! लोके ॥१७॥ अन्वयार्य- (मुनीन्द्र !) हे मुनियों के इन्द्र ! आप ( कदाचित् ) कभी भी (न अस्तं उपयासि) न अस्त होते हैं ( न राहुगम्यः) न राहु के द्वारा ग्रस्त होते हैं और (न अम्भोधरोदरनिरुद्ध-महाप्रभावः ) न मेघ से ही आप का महान् तेज अवरुद्ध हो सकता है। आप तो ( युगपत् ) एक साथ (जगन्ति) तीनों लोकों को ( सहसा ) शीघ्र ही ( स्पष्टी करोषि ) प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार आप (लोके सूर्यातिशायि महिमा असि ) जगत् में सूर्य से बढ़कर महिमा वाले हैं ॥ १७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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