________________
भक्तामर-स्तोत्र
a
तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है। इसके लिए ज्ञाता - सूत्र देखने का कष्ट करें। दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष - विलोकनीयं,
__ नान्यत्र तोवमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकर - द्युतिदुग्धसिन्धोः,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥
अन्वयार्थ - (अनिमेषविलोकनीयम्) बिना पलक झपकाये - एकटक देखने के योग्य, (भवन्तम्) आपको (दृष्ट्वा ) देखकर (जनस्य) मनुष्य के (चक्षः) नेत्र (अन्यत्र) दूसरी जगह (तोषम्) सन्तोष (न उपयाति) नहीं पाते । (दुग्धसिन्धोः ) क्षीर-सागर के (शशिकरच ति) चन्द्रमा के समान कान्ति वाले (पयः) पानी को (पीत्वा) पीकर (क:) कौन पुरुष (जलनिधेः) समुद्र के (क्षारंजलम्) खारे पानी को (रसितुम् इच्छेत्) पीना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं ॥११॥
भावार्य-प्रभो ! आपका अलौकिक सौन्दर्य निर्निमेष एकटक देखने योग्य है। आप जब आँखों के समक्ष हों, तो भक्त के लिए पलक का झपकना भी असह्य है । इस प्रकार आप जैसे दिव्य - शोभाधाम के एक वार दर्शन कर लेने के बाद मनुष्य की आँ वें अन्यत्र कहीं सन्तुष्ट ही नहीं हो सकती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org