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भक्तामर स्तोत्र
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अन्वयार्थ - ( अस्त समस्तदोषम् ) सम्पूर्ण दोषों से रहित ( तव स्तवनम् आस्ताम् ) आपका स्तवन तो दूर रहा, किन्तु ( त्वत् संकथा अपि ) आपकी पवित्र कथा भी ( जगताम् ) जगत् के जीवों के (दुरितानि) पापों को ( हन्ति ) नष्ट कर देती है । ( सहस्रकिरण: ) सूर्य (दूरे) दूर रहता है, पर उसकी ( प्रभाव ) प्रभा ही (पद्माकरेषु) सशेवरों में (जलजानि) कमलों को ( विकासभाञ्जि ) विकसित ( कुरुते ) कर देती है ॥ ६ ॥
भावार्थ:-- हे जिनेन्द्र ! समस्त दोषों को नष्ट करने चाला आपका पवित्र स्तोत्र तो विलक्षण चमत्कार रखता ही है, परन्तु वह तो दूर रहा, यहाँ तो श्रद्धा से उच्चारण किया जाने वाला आपका छोटे-से-छोटा नाम भी त्रिभुवन के पापों को नष्ट कर देता है ।
अरुणोदय के समय हजार किरणों वाला सूर्य तो दूर ही रहता है, परन्तु उसकी भू-मण्डल पर सर्वप्रथम अवतरित होने वाली प्रभा ही सरोवर के रात भर के मुरझाए हुए कमलों को विकसित कर देती है । टिप्पणी
जब कि सूर्य की प्रातः कालीन अरुणप्रभा से ही कमल खिल जाते हैं, तो सूर्य के साक्षात् उदय होने पर क्यों न खिलेंगे ?
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