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भक्तामर स्तोत्र
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा
मुद्द्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥१॥
यः संस्तुतः सकल-वाङमय - तत्त्वबोधा___ दुद्भूतबुद्धि - पटुभिः सुरलोक - नाथः । स्तोत्रैर्जगत्रितय - चित्तहरैरुदारैः, स्तोध्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥
(युग्गम् )
अन्वयार्थ --(भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणिप्रभाणाम) भक्त देवों के झुके हुए मुकुट - सम्बन्धी रत्नों की कान्ति के (उद्द्योतकम) प्रकाशक (दलित-पाप-तमोवितानम) पापरूपी अंधकार समूह को नष्ट करनेवाले और (युगादौ) युग के प्रारम्भ में (भवजले) संसाररूपी जल में (पतताम्) पिरते हुए (जनानाम् ) प्राणियों के ( आलम्बनम् )
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