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भक्तामर-स्तोत्र
भगवान ऋषभदेव ने ही मानव-जाति को तत्त्व-ज्ञान का उपदेश दिया था। अस्तु, भगवान् के चरणों का सहारा पाकर ही उस समय मानव-जाति संसार-सागर से पार हो सकी।
भली-भांति नमस्कार से अभिप्राय है-मन, वचन और. शरीर की एकाग्रता-पूर्वक प्रभु के चरणों में प्रणाम करना । श्रद्धा का प्रवाह जब उक्त तीनों मार्गो से एकरूप होकर बहता है, तभी कोटि-कोटि जन्मों के पाप धुलकर साफ होते हैं । ___ 'स्वर्ग के इन्द्रों ने त्रिभुवन-मोहक स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की है, उस भगवान् ऋषमदेव की मैं भी स्तुति करूंगा-उक्त कथन से आचार्य श्री मानतुंग अपनी लघुता प्रकट करते हैं, कि कहाँ मैं और कहाँ इन्द्र । भगवान् की स्तुति मुझसे क्या होगी? फिर भी मैं स्तुति करूंगा अर्थात् स्तुति करने का प्रयत्न करूंगा। बुद्धया विनाऽपि विबुधाचित - पादपीठ !
स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगत - त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल - संस्थितमिन्दुबिम्ब
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥
अन्वयार्थ-(विबुधार्चित - पादपीठ) देवों के द्वारा जिनके चरण रखने की चौकी पूजित है, ऐसे हे जिनेन्द्र ! (विगत-त्रपः) लज्जा - रहित (अहम्) मैं (बुद्ध या विना अपि) बुद्धि के बिना भी (स्तोतुम्) स्तुति करने के लिए,
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