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भगवतीसत्र नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता' एतेषां पदजातानां संग्रहो भवति, किमत्रादीत् तबाह'गंगदत्तस्स' इत्यादि 'गंगदत्तस्स णं भंते । देवस्स' गङ्गादत्तस्य खलु भदन्त । देवस्य 'सा दिव्या देवड्डी दिव्या देवज्जुई कहिं गया कहिं अणुप्पविष्टा' सा दिव्या देवद्धिः दिव्या देवद्युतिः क्व गता क्व अनुमविप्टेति मे कथय । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'सरीरं गया' शरीरं गता 'सरीर अणुपविट्ठा' शरीरमनुपविष्टा गङ्गदत्तस्य देवश्रुत्यादि तदीयारीरे एव अनुप्रविष्टमिति भावः । 'कूडागारमाला दिहतो' कूठाकारशाला दृष्टान्तः, अत्र कुटाकार शालादृष्टान्तो वक्तव्यः कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव सरीरं अणुप्पविटा' यावच्छरीरम् अनुपविष्टा, गङ्गदत्तस्य सा ऋद्धिः कूटाकारशालादृष्टान्तेन शरीरमनुगतेवयासी' श्रमण भगवान महावीर से ऐसा पूछा-यहां यावत्पद से 'वंदहनमंसह वंदित्ता नमंसित्ता' इन पदों का संग्रह हुआ है- क्या पूछा-सो 'गंगदत्तस्ल णं भंते ! देवस्स' इस सूत्र द्वारा कहा गया हैहे भदन्त ! गंगदत्तदेवकी 'ला दिव्या देविड़ी दिव्या देवज्जुई कहिं गया, कहिं अणुप्पविठ्ठा' वह दिव्य देवद्धि दिव्य देवाति कहां गई कहां अनुप्रविष्ट हो गई ? आप हमे कहिये-ऐसा (श्रमण भगवान् महावीर से गौतमने पूछा)-इसके उत्तर में प्रभु ने कहा-'गोयमा! सरीरं गया, सरीर अणुप्पविहा' हे गौतम ! गंगदत्त देवकी वह दिव्य देवद्धि दिव्य देवधुति उसके ही शरीर में समा गई है और उसीके शरीर में अनुप्रविष्ट हो गई । 'कूडागारसाला दिलुतो' इस विषय में यहाँ कूवाकार शोलो का दृष्टान्त कह लेना चाहिये । और वह 'जाव सरीरं अणुप्पविद्या' यहां तक ग्रहण करना चाहिये तात्पर्य कहने का ભગવાન મહાવીરને ગૌતમ સ્વામીએ આ પ્રમાણે પૂછયું અહિંયા યાવત્ ५४थी "-वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता" मे पहानी संग्रह थये। छ. २ शु. ५७युत ४वामां आवे छे. “गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स" ७ समपन् !
महत्तवनी " सा दिया देवड्ही दिव्या देवज्जुई कहि गया कहि अणु पविद्वा" हिय व द्धि भने हिय व धुति ४यां गई गले यां પ્રવેશી ગઈ? તે બાબત આપ મને કહો તેના ઉત્તરમાં પ્રભુએ આ પ્રમાણે
यु " गोयमा ! सरीरं गया सरीरं अणुपविद्वा" गौतम ! मत वनीत દિવ્ય દેવ ઋદ્ધિ અને દિવ્ય દેવઘુતિ તેના શરીરમાં સમાઈ ગઈ છે. અને तना शरीरमा प्रवेश. 15 छ. " कूडागारसालादिद्वत्तो जाव सरीर अणु पविद्वा " मा विषयमा सा२ शापा टांत यावत् शरीरमा प्रविष्ट यई