Book Title: Bhagwati Sutra Part 12
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 677
________________ प्रमैयबान्द्रका टीका श०१८ उ०३ सू०१ पृथ्वीकायादीनामन्तक्रियानिरूपणम् ६५५ लेश्यावान् जीवः कापोतिकलेश्येभ्यो वनस्पतिकायिकेभ्यो निर्गत्य मानुष्यदेह प्राप्य -शुद्धसम्यक्त्वं प्राप्य सिध्पति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोतीति भगवत उत्तरमिति भावः । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, यद् देवानुपियेण कथित तत्सर्व सत्यमेति भावः, इति'एवं रूपेण कथयित्वा 'मागंदियपुत्त अणगारे' माकन्दिकपुत्रोऽनगारा, 'समणं भगवं महावीर' श्रमणं भगवन्त महावीरम् 'जाव नमंसित्ता' यावद् नमस्यित्वा अत्र यावत्पदेन-वन्दते नमस्यति वन्दित्वा, एतेषां ग्रहणं भवति, 'जेणेव समणा 'णिग्गंथा तेणेव उवागच्छ।' यत्रैव श्रमणा निर्ग्रन्था स्तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'समणे णिग्गंथे एवं वयासी' श्रमणान निर्ग्रन्थान् एवं-वक्ष्यमाणपकारेण च कापोपतलेश्यावाली वनस्पतिकाधिकजीव कापोतलेश्यावाले अन्य वनस्पतिकायिक जीवों में से भरकर तुरत मनुष्य देह को प्राप्त करके उसमें शुद्ध सम्यक्त्व को लेकर के सिद्ध होता है, वुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वात होता है, और सर्व दुःखों का अन्त करताहै, 'सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति' हे भदन्त ! आप देवानुप्रियने जो यह कहा है वह सर्वथा सत्य है २ इस प्रकार से कहकर 'मार्गदियपुत्ते अणगारे' वे माकन्दिक पुत्र अनागार 'समण भगवं महावीर प्रमण भगवान महावीर को 'जाव नमंसित्ता' यावत् नमस्कार कर 'जेणेव समणे निग्गंथे तेणेव उवागच्छई' जहां श्रमण निम्रन्थ विराजमान थे-'तेणेव उवागच्छई' वहाँ पर गये-यहां यावत् शब्द से 'वन्दते, नमस्थति, वन्दित्वा' इन पदों का संग्रह हुआ है । 'उवागच्छित्ता' वहां जा करके 'समणे निग्गंथे છે.–કાપિતશ્યાવાળો વનસ્પતિકાયિક જીવ કાપિત લેસ્યાવાળા બીજા વનસ્પતિકાયિક પણુથી મરીને તરત મનુષ્ય શરીરને મેળવીને તેમાં શુદ્ધ સમ્યકુવા પામીને (સંયમ ધારણ કરીને) સિદ્ધ થાય છે, બુદ્ધ થાય છે, મુક્ત થાય छे. परिनित थाय छे. अने. स मान मत ४२ छे "सेवं भंते । सेवं भंते ! ति" है मापन मा५ हवानुप्रिये रे युछे ते सया सत्य छे.. ભગવદ્- આપે કહેલ સર્વ યથાર્થ છે. આ પ્રમાણે કહીને "मागंदियपुत्ते अणगारे" ते मयि पुत्र मना२ "समयं भगवं महावीर" श्रम लगवान महावीर "जाव नमखित्ता" यावत् नमा२ ४शन 'जेणेव समणे णिग्गये तेणे वागच्छद" या श्रम निथ निरासा छे. "तेणेव' उवागच्छई" त्या तया गया. हि यापत् ५४थी 'वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा भा पहानी में थयो छ. "उवागच्छित्ता" त्यां धन “समणे णिग्गंधे।

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