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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ सू०२ सयतासयतत्वे योगद्वारम् १०७ णम् । 'अवेदओ जहा अहसाई' अवेदको यथा अपायी, अवेदको जीवपदे सिद्ध. पदे च नो चरमोऽपितु अचरमः, मनुष्यपदे अवेदकः स्याचरमः स्यादचरमः ॥१२॥ ___'ससरीरी जाव कम्मगसरीरी जहा आहारओ' सशरीरी यावत्कार्मणशरीरी यथा आहारकः अत्र यावत्पदेन औदारिकवैक्रियाहारकतैजसशरीराणां ग्रहणं भाति, सशरीरी कदाचिचरमः स्यात् कदाचिदचरमः स्यात् , 'नवरं जस्स जं अत्थि' नवरं यस्य यदस्ति, यस्य जीवादेशं शरीरं भवेत् तस्य जीवादे स्तादृशशरीरसम्बन्धादेव चरमत्वमचरमत्वं बोध्यम् । 'असरीरी जहा नो भवसिद्धिय नो अभासिदिओ' अशरीरी यथा नो भवसिद्धिक नो अममिद्धिकः सिद्धः अशरीरी सर्वत्र पदेषु नो चरमोऽपितु अचरम एव भवतीति ।१३।। वेदों का ग्रहण हुआ है । 'अवेदओ जा असाई' अवेदक जीव पदमें और सिद्ध पद, चरम नहीं हैं। अपितु अचरम है। मनुष्य पदमें अवेदक कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम है। ससरीरी जाव कामगसरीरी जहा ओहारओ' सशरीरी थावत् कार्मणशरीरी आहारक के जैसे है। यहां यावत्पद से औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस इन शरीरों का ग्रहण हुआ है। इस प्रकार शरीरी
आहारक के जैसा कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है। 'नवरं जस्स जं अस्थि' जिस जीव को जो शरीर होता है उस जीव को उस शरीर के सम्बन्ध से ही चरमत्व अचरमत्व और अचरमस्थ जानना चाहिये । 'असरीरी जहा नो भव सिद्धिय नो अभवसिद्धिओ' अशरीरी नो भवसिद्धिक नो अभयसिद्धिक के जैसे सवत्र पदों
यावत्पथी सी पु३५ वर्नु य थयु छे. 'अवेदओ जहा अकसाई' भने જીવપદમાં અને સિદ્ધપદમાં ચરમ નથી પરંતુ અચરમ છે. મનુષ્યપદમાં અવેદક
यित् यरम सने हायित् अयरम छे. ससरीरी जाव कम्मगसरीरी जहा आहारओ' सशरीरी यावत् भए शरीरी माह प्रमाणे माह યાત્મદથી ઔદારિક, વૈક્રિય, આહારક, તૈજસ આશરીર ગ્રહણ થયા છે સરીર, આહારક પ્રમાણે કેઈવાર ચરમ અને કઈવાર અચરમ डाय छे. 'नवर' जस्स जं अत्थि' २ पनवु शरी२ डाय छ, त જીવને તેના શરીરના સંબંધથી જ ચરમપણું અને અચરમપણું સમr'. 'अरारीरी जहा नो भवसिद्धिय नो अभवसिद्धिओ' अशरीरी नासवसि. દ્ધિક અને ને અભવસિદ્ધિક પ્રમાણે બધા પદમાં ચરમનથી પરંતુ અચમજ