Book Title: Bhagwati Sutra Part 12
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 613
________________ प्रचन्द्रिका टीका श० १८ उ०१ सु०२ चरमाचरमत्वे संज्ञिद्वारम् ५९५ वचनं बहुवचनं चाश्रित्य अभवसिद्धिकवद् अचरमः तस्य सिद्धस्वात् सिद्धस्य च सिद्धत्वपर्यांयस्य साधनन्तत्वात् | ३| 'संज्ञिद्वारे 'सन्नी जहा आहारओ' संज्ञी यथा आहारकः, संज्ञिस्वेन रूपेण स्याच्चरमः स्यादचरमः इत्यर्थः, ' एवं असन्नी वि' एत्रम् असंज्ञी अपि, एवम् संज्ञित्रदेव असंज्ञी अपि स्याच्चरमः स्यादचरम इति, 'नो सनि नो अपनी जीवपदे सिद्धपदेय अचरिये' नो संज्ञि नो असंज्ञी जीवपदे सिद्धपदेव अवरमः, 'मणुस्तपदे चरिमे एगतपुहुत्तेण' मनुष्यपदे चरमः एकत्वपृथक्त्वेन उभयनिषेधवश्च जीवः सिद्धश्वाचरमः मनुष्यस्तु चरम, चरमा - चरमेत्युभयनिषेधवतो मनुष्पस्य केवलित्वेन पुनर्मनुष्यत्वस्य अलाभात् |४| I रूप होते हैं । और जो सिद्ध हैं वे सिद्धत्व पर्याय की अपेक्षा सादि अनन्त कहे गये हैं । संज्ञिद्वार में - 'सन्नी जहा आहारओ' संज्ञी जीव संज्ञित्वरूप से कदाचित् चरम एवं कदाचित् अचरम कहा गया है। 'एवं असन्नी वि' इसी प्रकार से असंज्ञी भी आहारक के जैसा कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है । 'नो सन्नि नो असन्नी जीव पदे सिद्धपदेय अचरिमे' नो संज्ञी नो असंज्ञी जीव पदमें और सिद्ध पदमें अचरम है । 'मस्तपदे चरि मे एतत्तण' मनुष्यपद में एक. वचन और बहुवचन को आश्रित करके वे चरम हैं । नो संज्ञी नो असंज्ञी जीव और सिद्ध हैं और वे अचरम हैं । परन्तु मनुष्य चरम है । यह चरमता मनुष्य में केवली की अपेक्षा से कही गई जानना चाहिये। क्योंकि अब इसे पुनः मनुष्य भव का लाभ नहीं होता है । હાય છે. અને જે સિદ્ધપણાની પર્યાયની અપેક્ષાથી સાદિ અનંત કહેવાય છે. , ४ स'ज्ञिद्वारमां 'खन्नी जहा आहारओ' संज्ञीव सज्ञिपणाथी हाथित् शरभ अले भने महायित अथरभ हेवाय छे. 'एवं असन्नी वि' मेन रोते અસ’નીપણુ આહારક પ્રમાણે કદાચિત્ ચરસ અને કદાચિત્ અચરમ હોય છે. 'नो सन्नी तो सन्नी जीवपदे सिद्धपदेय अचरिमे' ने संज्ञी भने खसंज्ञी लवयहमां भने सिद्धपमा अथरम छे. 'मणुस्वपदे चरिमे एगत्तपुहुप्तेणं' मे વચન અને બહુવચનને આશ્રય કરીને મનુષ્યપદમાં તેઓ ચરમ છે. ના સ'જ્ઞી અનેના મસીજીત્ર પદમાં અને સિદ્ધપદમાં સિદ્ધ છે અને તે અચરમ છે. પરંતુ મનુષ્ય ચરમ છે. આ ચરમપણુ મનુષ્યમાં દેવલીની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યું છે, તેમ સમજવુ' કેમકે કેટલજ્ઞાન થયા પછી તેને ફરીથી મનુષ્યભવ પ્રાપ્ત થતા નથી.

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