Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ पुरोवाक् जैन आगम - वाङ्मय अध्यात्म और विज्ञान विषयक ज्ञान का एक अनुपमेय स्रोत है । यह आध्यात्मिक साधकों एवं तत्त्व- जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी है क्योंकि उसमें उस आप्तवाणी के शाश्वत स्वर मुखर होकर सत्यानुभूति तक उन्हें पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। एक आध्यात्मिक साधक किसी ऐसे आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त आप्त की अनुभव-वाणी की तलाश में रहता है जिसके पद चिह्न उसे अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर करने में पथ - दर्शक बनते हैं तथा अमार्ग/कुमार्ग में भटक जाने से बचाते हैं । एक तत्त्व - जिज्ञासु को तत्त्व की जिज्ञासा को शांत करने वाली उस सत्यानुभूतिपरक अभिव्यक्ति की अपेक्षा रहती है जिससे तत्त्व - ज्ञान के अथाह महासागर का अवगाहन करने में उसे अचूक आलम्बन प्राप्त हो । जैन आगमों के रूप में जो ज्ञान राशि संकलित है, वह इन दोनों दृष्टियों से अपने आपमें महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो रही है । - " जैन धर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल आधार तीर्थंकर की वाणी है। तीर्थंकर वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं । सर्वज्ञ का एक अर्थ है - आत्मद्रष्टा । सम्पूर्ण रूप से आत्मदर्शन करने वाले ही सम्पूर्ण विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं और जो समग्र को जानते हैं वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं, परम हितकर निःश्रेयस् का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं । सर्वज्ञों द्वारा निरूपित तत्त्वज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध 'आगम' हैं । तीर्थंकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है, महान् प्रज्ञावान् गणधर उसे सूत्ररूप में ग्रथित करके व्यवस्थित आगम का रूप देते हैं।' जैन दर्शन का अध्ययन करना प्रत्येक जैन धर्मानुयायी के लिए बहुत जरूरी है, भले वह साधु-साध्वी हो या श्रावक-श्राविका । आगम का अध्ययन न केवल इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, अपितु सम्यक्त्व को परिपुष्ट करने का यह एक सशक्त साधन है । सम्यक्त्व की प्राप्ति से लेकर उसकी परिपुष्टि तक आगम का अनुशीलन बहुत ही उपयोगी है । 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' - 'जो जिनेश्वरों द्वारा प्रवेदित है, वह सत्य ही है, निःशंक ही है' र यह १. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा । (द्रष्टव्य आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, आमुख, पृष्ठ ९) युवाचार्यश्री मिश्रीमलजी महाराज २. 'मधुकर' द्वारा संपादित, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा प्रकाशित) । भगवई (भाष्य), खण्ड १, १/१३१, १३२ का भाष्य, पृष्ठ ७६ ।

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