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महावीर के पांच सिद्धान्त भारतीय दर्शनों मे जैन दर्शन का अपना एक मौलिक और विशिष्ट स्थान रहा है, अन्य दर्शनो की भांति जैनदर्शन ने भी दार्शनिक जगत में अपूर्व प्रतिष्ठा उपलब्ध की है । जैनदर्शन ने जो वस्तुतत्त्व हमारे सामने उपस्थित किया है, वह इतना उदार, प्रामाणिक, युक्तियुक्त, सार्थक और सुन्दर है कि प्रत्येक देश, प्रत्येक काल तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रूप से उपादेय है। जैनदर्शन की उपादेयता, उपयोगिता, मगलकारिता और कल्याणकारिता में सन्देह को कहीं भी कोई अवकाश नहीं है।
जैनदर्शन मानव को मानवता का मगलमय पाठ पढ़ा कर उसे महामानव बनने की पवित्र प्रेरणा प्रदान करता आया है । समयसमय पर वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रिय तथा आध्यात्मिक जीवन के निर्माण, उत्थान एव कल्याण में जैनदर्शन ने अपना सहयोग अर्पित किया है। किसी भी प्राध्यात्मिक दृष्टि में जैनदर्शन मौन नहीं रहा है, उसने सदा मानव-जगत का अध्यात्म मार्गदर्शन किया है और उसके अन्धकार-पूर्ण मानसाकाश में ज्ञान का दिवाकर उदित करके उसके अन्धकार का सर्वतोमुखी विनाश किया है।
जैनधर्म के संस्थापक महामहिम भगवान ऋषभदेव थे । आध्यात्मिक महानद के मूलस्रोत यही महापुरुप माने जाते हैं । वैदिक ग्रन्थ भी इम महापुरुष को महिमा गाते नहीं थकत । जैनवर्म तो इन्हें प्रथम राजा, प्रथम साधु, प्रथम जिन और प्रथम तीर्थकर स्वीकार करता है। इस युग मे जैनवर्म के महा-मन्दिर का पट सर्वप्रथम इसी