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जगत के मामने रखा है, उतना हमें कहीं भी प्राप्त नहीं होता। जैनधर्म का तो मूलाधार हो अहिंसा है, वहां हिंसा को जरा भी स्थान नहीं है। किन्तु दूसरे धर्मों में धर्म के नाम पर हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। एक दिन यज्ञवादियों ने
___ "वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति" यह कह कर हिंसा पर अहिंसा का रंग चढ़ाने का प्रयत्न किया था और स्पष्ट रूप मे हिमा की प्रतिष्ठा की थी। अहिंसा-वादियों की ओर से जब यज्ञ में होने वाली पशु-हिंसा का विरोध किया गया तो यज्ञवादियों ने
"यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः; यह कह कर हिंसा का खुल्लम-खुला समर्थन किया था और उसे शास्त्रीय बतला कर आदरणीय बतलाया था । मनुस्मृति उठा कर देख लीजिए। वहां श्राद्ध के नाम पर हिंसा का स्पष्ट विधान. पाया जाता है। श्राद्ध में अमुक पशु के मांस से अमुक पितर इतने समय तक तृप्त रहता है, अमुक पितर इतने समय तक, इस प्रकार के अनेको मन्तन्य आप को वहा मिल सकते हैं । परन्तु जैनधर्म के विधिविथानों में और धार्मिक अनुष्ठानों में आप को कहीं भी हिंसा के दर्शन नहीं होंगे। अहिंसा के नाम पर हिंसा की बात आप को कहीं *द्वौ-मासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हरिणेन तु ।
औरणाथ चतुरः, शाकुनेनाथ पच वै ॥ षण्मासान् छागमांसेन, पार्षतेन च सप्त वै अष्टावणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु ॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति, वराह-महिषामिषैः ।