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किसी ने सूण्ड पकड़ी, किसी ने पूछ को हाथ लगाया और क्सिी ने पेट टटोला । इस प्रकार अपने-अपने हाथ छाए हुए हाथी के एकएक अवयव को ही वे पूरा हाथी समझने लगे। पैर टटोलने वाले ने हाथी को स्तंभ के समान समझा, सूण्ड पकडने वाले ने मूसल के समान, कान पकडने वाले ने सृप (छाज) के समान और पूछ को हाथ लगाने वाले ने, मोटे रस्से के समान समझ लिया। अन्धे अपनेअपने अनुभव के आधार पर हाथी के एक-एक अवयव को सम्पूर्ण हाथी समझते हुए आपस मे मिले और जब उनके अनुभव परस्पर विरोधी प्रकट हुए तो आपस मे विवाद करने लगे और सभी एक दूसरे को झूठा बतलाने लगे। ठीक यही दशा एकान्तवादो धर्मों, दर्शनों और सम्प्रदायों की होती है। उक्त जन्मान्धो का कथन एक-एक अश में सत्य अवश्य है किन्तु जब वे दूसरों को झूठा बतलाते हैं तो स्वय झूठे बन जाते हैं। इसी प्रकार जगत के एकान्तवादी धर्म अपने आपको सच्चा समझते हुए दूसरो को झूठा न कहे अथवा न मानें तो कोई विवाद उपस्थित नहीं हो सकता। परन्तु दूसरे के दृष्टिकोण को अपनी दृष्टि से अोमन करके और उस की आंशिक सचाई को अस्वीकार करके उस को झूठा कहते हैं । इस कारण वे स्वय झूठे बन जाते हैं। इससे परस्पर विरोध का सम्बर्धन होता है । इस विरोध को अनेकान्तवाद की समन्वय-प्रधान दृष्टि ही शान्त कर सकती है।
अनेकान्तवाद का दूसरा नाम स्याद्वाद है। स्याद्वाद शब्द दो पदो से बना है- स्याद् और वाद । स्याद् यह अव्ययपद है, जो अनेकान्त अर्थ का बोध कराता है । वाद का अर्थ है-कथन। अर्थात् अनेकान्त भाषा द्वारा कथन, वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन स्याद्
स्याद् इत्यव्ययं अनेकान्त-द्योतकं, तत. स्याद्वादः, अनेकान्तवाद. (स्याद्वाद-मजरी में मल्लिषेण सूरि)
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