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(७५) कहते है। यह कर्म चित्रकार के तुल्य है । जैसे चित्रकार विविध वर्णो से अनेक प्रकार के विचित्र चित्र बना डालता है। वैसा ही काम नामकर्म का होता है । यह कर्म जीव की नारक, तिर्यञ्च आदि नानविध अवस्थाओ का उत्पादक बन कर उसे इन सज्ञामो से व्यवहृत कराता है।
७ गोत्रकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव उच्च और नीच शब्दो से व्यवहत किया जाता है उस को गोत्र कर्म कहते हैं। इस कर्म के प्रभाव से जीव जाति (मातृ पक्ष) कुल (पितृ पक्ष) आदि की अपेक्षा छोटा या बडा कहा जाता है । यह कर्म कुम्हार के समान है । कुम्हार जैसे आदरास्पद और घृणास्पद दोनो प्रकार के भाजन बनाता है वैसे ही यह कर्म, जाति, कुल आदि की अपेक्षा से जीव को ऊच और नीच बना डालता है। मातृवश की निर्दोषता, उत्तमता जातीय उच्चता है और उस की सदोषता, निकृष्टता जातीय नीचता है तथा पितृवश की धार्मिकता, नैतिकता, प्रामाणिकता कुल सम्बन्धी उच्चता है और उस की अन्यायप्रियता, अप्रामाणिकता ही कुलसम्बन्धी नीचता है । जाति तथा कुल आदि सम्बन्धी उच्चत्ता और नीचता की प्राप्ति का कारण गोत्रकर्म है।
८ अन्तराय कर्म-जिस कर्म के प्रभाव से दान, लाभ आदि प्रवृत्तियो मे विघ्न पडता है उस को अन्तराय कर्म कहते है। यह कर्म कोषाध्यक्ष के समान है। राजा को प्राजा होने पर भी कोपाध्यक्ष के प्रतिकूल होने पर जैसे प्रार्थी को धन-प्राप्ति मे वाधा का सामना करना पड़ता है, वैसे ही यह कर्म दान, लाभ आदि प्रवृत्तियो मे विघ्न उपस्थित करता