Book Title: Bhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 188
________________ (१७०) है । आसक्ति की समाप्ति होने पर परिग्रह भी समाप्त होता चला जाता है। "ज्ञानसार" मे लिखा है कि ममताहीन, विरक्त और अलिप्त पुरुपो के लिए तो तीनो लोको का ऐश्वर्य भी अपरिग्रह ही है। मूर्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रह ।। ___ यह सत्य है कि आसक्ति-भाव का नाम परिग्रह है और इसी आशय को लेकर जैनशास्त्रो मे प्राय. परिग्रह शब्द का व्यवहार मिलता है, किन्तु शास्त्रो मे धन, सम्पत्ति आदि वस्तुओं को भी परिगह कहा गया है । क्योकि ये सव पदार्थ प्रासक्ति का कारण वनते हैं। मूर्छा का कारण होने से इन को भी परिग्रह की सज्ञा दी जा सकती है और दो भी जाती है। अन्न प्राणो को कायम रखने का कारण होता है, वह प्राणस्वरूप नही होता, तथापि कारण मे कार्य का उपचार करके जैसे "अन्न वै प्राणा." यह कह दिया जाता है, वैसे ही धन, सम्पत्ति आदि भी परिगह कहलाते है। भले ही वे स्वय परिग्रहस्वरूप नही है तथापि उस का कारण होने पर उन्हे भी परिग्रह कहा जाता है। हरिभद्रीयावश्यक में इस परिग्रह के नी भेद पाए जाते हैं । वे इस प्रकार है-. . १ क्षेत्र-धान्य उत्पन्न करने की भूमि को क्षेत्र कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है-मेतु और केतु । अरहट, नहर, कूया आदि कृत्रिम उपायो मे सीची जाने वाली भूमि को सेतु और केवल बग्नात ने सीची जाने वाली भूमि को केतु पाहते २. वास्तु-प्राचीनकाल में घर को वातु कहा जाता था। यह तीन प्रकार का होता है-(१) मान-मनपर या भूमिगृह. (२) उच्च-नीच सोद कर ममि ने पर बना हुमा भवन,

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