Book Title: Bhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 192
________________ (१७४) - आध्यात्मिक साधना मे अपरिग्रह का बड़ा ऊचा स्थान है। अपरिग्रह को छोड कर सभी साधनाए अपूर्ण रहती है। सयम और साधना के पथ पर चलने वाले साधु और श्रावक दोनों ही ससम्मान इस का आसेवन करते है । साधु इसे महाव्रत के रूप में देखता है और श्रावक इसे अणुव्रत के रूप मे अपनाता है। दोनो को अपनी-अपनी शक्ति लगाकर इस की अर्चना में तन्मय होना पड़ता है । तभी जाकर इन को अध्यात्म साधना सफल होती है। ___ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाच व्रत माने गए है। इन्हे महाव्रत और अणुव्रत भी कहा जाता है । जब इन का आशिक पालन होता है, तब इन की अणुव्रत और जब इन का पूर्णतया पालन किया जाता है, तब इन की महाव्रत सज्ञा होती है । इस प्रकार अपरिग्रह महाव्रत भी है और अणुव्रत भी।' जब इसे साधु अपनाता है तो यह महाव्रत का रूप ले लेता है और जब गृहस्थ इस को धारण करता है तब इस को अणुव्रत कहा जाता है। साधु कचन, कामिनी का सर्वथा त्यागी होता है। धन, धान्य आदि परिग्रहो मे से किसी भी परिग्रह से उस का सम्बन्ध नही होता है । वह उक्त सव परिग्रहो का मन, वचन और शरीर से न स्वयं सग्रह करता है, न दूसरो से करवाता है और न करने वालो का अनुमोदन ही करता है। वह पूर्णस्वरूप से से असंग, अनासक्त, अकिंचन वृत्ति का धारक होता है। कौडी, पैसा ' रूप परिग्रह भी उस के लिए विप के समान हेय एव त्याज्य होता है और तो क्या, वह अपने शरीर पर भी ममत्वभाव नहीं रख सकता । वस्त्र, पात्र, रजोहरण, पुस्तके आदि

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