Book Title: Bhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 186
________________ (१६८) अर्थात् - जो साधक किसी भी तरह का परिग्रह स्वय रखता है, दूसरो से रखवाता है, अथवा रखने वालो का अनुमोदन करता है, वह कभी भी दुखो से मुक्त नही हो सकता । "नत्थि एरिसो पासो पडिबन्धो, अस्थि सव्व-जीवाणं सव्वलोए" - 1 - प्रश्नव्याकरण पञ्चम आश्रवद्वार अर्थात- समग्र लोक के समस्त जीवों के लिए परिग्रह से बढ़कर कोई बन्धन नही है | परिग्रह का अर्थ --- अपरिग्रह का प्रतिपक्षी परिग्रह होता है । सामान्य रूप से धन, सम्पत्ति आदि वस्तुप्रो का नाम परिग्रह है किन्तु वास्तव मे परिग्रह ग्रासक्ति या ममता का नाम है । ममताबुद्धि के कारण वस्तुप्रो का अनुचित सग्रह करना या श्रवश्यकता से अधिक संग्रह रखना परिग्रह कहलाता है । वस्तु छोटी हो या बड़ी, जड़ हो या चेतन, अपनी हो या पराई, जो भी हो, उस मे आसक्त हो जाना, उसमे बघ जाना, उसके पीछे पड़कर विवेक खो बैठना "परिग्रह " कहा गया है । परिग्रह की वास्तविक परिभाषा मूर्च्छा है । प्रत पास मे कोई वस्तु हो या न हो परन्तु यदि तत्सम्वन्धी मूर्च्छा है तो वह सब परिग्रह ही माना जाता है । मूर्च्छा न होने पर एक चक्रवती सम्राट् भी अपरिग्रहो कहा जा सकता हे ओर मूर्च्छा होने पर एक सामान्य भिखारी भी परिग्रही ही समझना चाहिए इसीलिए । प्राचार्य शयभव दशवैकालिक सूत्र में कहते है >> 1

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