________________
है । दाता देना चाहता है, याचक लेना चाहता है, देय वस्तु भी प्रस्तुत है किन्तु अन्तराय कर्म के प्रभाव से ऐसी बात बन जाती है कि दाता दे नही सकता और याचक ग्रहण नहीं कर पाता । कर्मो को उत्तर प्रकृतिया तथा बन्ध, भोग सामग्री
कर्मो को आठ मूल प्रकृतियो का सक्षिप्त वर्णन ऊपर कर दिया गया है। जैनदर्शन ने कर्मसिद्धान्त का वर्णन यही तक सीमित नही रखा है । कर्मों की मूल प्रकृतिया बताने के साथ-साथ जैनदर्शन ने कर्मों की उत्तर प्रकृतियो का बहुत सुन्दर ढग से निरूपण किया है। कर्मों को उत्तर प्रकृतिया १५८ होती है। ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९,वेदनीय की २, मोहनोय की २८, आयु की ४, नाम की १०३, गोत्र की २ और अन्तराय को ५, कुल मिलाकर उत्तर प्रकृतिया या
उत्तर भेद १५८ बन जाते है । इसके अलावा जैनदर्शन ने कर्मो के वन्ध कारणो का तथा उन की भोग सामग्री का भी निर्देश किया है । नवतत्त्व मे लिखा है कि ज्ञानावरणीय कर्म का वध ६ कारणो से होता है, १० प्रकार उसे भोगा जाता है । दर्शनावरणीय को ६ कारणो से वाधा जाता है और ९ प्रकार से उसे भोगा जाता है, इसी प्रकार वेदनीय कर्म २२ कारणो से वाधा जाता हे और १६ प्रकार से भोगा जाता है, मोहनीय ६ कारणो से वाधा जाता है और ५ प्रकार से भोगा जाता है,
इह नाण-दसणावरण-वेद-मोहाउ-नाम-गोयाणि । विग्घ च पण-नव-दु-अट्ठवीस-चउ-तिसय-दु-पणविह।
(कर्मग्रन्थ भाग १)