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(७३) जीवनविकारो के कारग मानप मे जो अव्यवसायविशेष पैदा होते है उनसे प्रात्मा द्वारा एक ही वार जो कर्म योग्य परमाणपुज ग्रहण किया जाता है, उस मे प्राध्यवसायिक शक्ति की विविधता के अनुसार एक ही साय अनेक स्वभावो का निर्माण होता है । वे स्वभाव अदृश्य है, तथापि उनके कार्यों को देख कर उन का परिगणन किया जा सकता है । एक या अनेक जीबो पर होने वाले कर्म के असख्य प्रभाव अनुभव मे आते है । इन प्रभावो के उत्पादक स्वभाव भी वास्तव में असख्य है । ऐसा होने पर भी स्थूल दृष्टि से वर्गीकरण करके उन सभी को पाठ भागो मे बाट दिया गया है। यही पाठ भाग कर्मों की मूल प्रकृतिया (भेद) कहलाती है। कर्मों की वे आठ मूल प्रकृतिया निम्नोक्त हैं
१ ज्ञानावरणीय-कर्म-वस्तु के विशेष बोध को ज्ञान कहते हैं । आत्मा के ज्ञानगुण को आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरणीय कहा जाता है । यह कर्म सूर्य को अाच्छादित किए हुए मेघो के तरह आत्मा की ज्ञान ज्योति को ढक लेता है।
२ दर्शनावरणीय कर्म-वस्तु के सामान्य वोध का नाम दर्शन है । आत्मा की दर्शन-गवित को ढकने वाला कर्म दर्शनावरणीय होता है । यह कम द्वारपाल के समान है। जैसे द्वारपाल राजा के दर्शन करने मे रुकावट डाल देता है, उसो प्रकार यह कर्म भो पदार्थों के देखने मे वाधक बन जाता है । दर्शनावारगग्य कर्म जहा देखने मे बाधा डालता है वहा वह प्राणो को निद्रित भी करता है । प्राणी को जो निद्रा आती है वह इसी के प्रभाव से आती है।