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(७२ है और द्रव्य कर्म के प्रभाव से होने वाले जीव के राग द्वापरूप भावो को भावकर्म कहा जाता है। ___भाव यह है कि जब कोई आत्मा किसी भी प्रकार का कोई सकल्प या विकल्प करता है, राग द्वप पूर्ण चिन्तना मे व्यस्त हो जाता है, काम, क्रोध, मोह और लोभ आदि जीवनविकारों का उस मे प्रादुर्भाव होता है तो आत्मप्रदेशो मे एक प्रकार को हलचल सी पैदा होती है, उस समय उसी प्रदेश मे स्थित कर्म-योग्य पुद्गल (परमाणु पुज) आत्मां मे आते है और उस से सम्बन्धित हो जाते है। खौलते तेल मे पडी पूरी जैसे तेल को खीच लेती है वैसे ही शुभाशुभ अध्यवसाय के कारण आत्मा शुभाशुभ कर्मपरमाणुगो को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। आत्मा और कर्मपुद्गलो का मेल ठीक वैसे ही होता है, जैसे दूध और पानी या लोहे और आग का होता है । इस प्रकार प्रात्मप्रदेशो के साथ कर्मवन्ध को प्राप्त पुद्गलो का नाम ही द्रव्य कर्म है । यह कर्म पुद्गल रूप होने से मूर्त है, जड है । द्रव्यकर्म राग द्वष का निमित्त पाकर आत्मा प्रदेशो के साथ वधा है, इस लिए राग द्वेषरूप भावो को भावकर्म कहते है । द्रव्यकर्म भावकर्म का कारण है और भावकर्म द्रव्य कर्म का। द्रव्यकर्म के विना भावकर्म नहीं रहता और भावकम के विना द्रव्यकर्म नही रहने पाता । दोनो का अविनाभावी सम्बन्ध है, एक के विना दूसरा जीवित नही रह सकता दोनो सदा साथ-साथ रहते है।
कर्मो को आठ मूल प्रकृतियाकाम, क्रोध आदि जीवनगत विकारो से आत्मा कर्म वन्ध को प्राप्त कर लेती है, यह ऊपर बताया जा चुका है। उक्त