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के किसी एक धर्म के विषय में प्रश्न किया जाता है, तब सभी विरोधी विचारों का परिहार करके उस प्रश्न के उत्तर में व्यस्त (पृथक) समस्त, विधि और निषेध की कल्पना की जाती है। इस कल्पना के कारण सात प्रकार के वाक्यों का प्रयोग किया जा सकता है। सप्त प्रकार के उन वाक्यों का नाम ही सप्तभगीवाद है। *सप्तभंगी को हम निम्नोक्त शब्दों में कह सकते हैं
१-कथञ्चित् है। भाव यह है कि प्रत्यक पदार्थ स्वरूपचतुष्टय (अर्थात् स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव) की अपेक्षा अम्ति रूप है। यह तथ्य एक उदाहरण से विस्पष्ट हो जायेगाएक पुस्तक अपने द्रव्य की अपेक्षा अस्तित्व को लिए हुए है।
*अस्ति-नास्ति और अवक्तव्य इन तीन भगों से चार संयुक्तभग बन कर सप्तभंगी दृष्टि का उदय होता है। नमक, मिर्च, खटाई इन तीन स्वादों के सयोग से चार और स्वाद उत्पन्न हो जाते हैं। १-नमक-मिर्च-खटाई, २-नमक-मिर्च, ३-नमकखटाई, ४-मिर्च-खटाई, ५-नमक, ६-मिर्च, ७-खटाई, इस प्रकार सात म्वाद होंगे। इस सप्तमगी न्याय की परिभाषा करते हुए एक जैनाचार्य लिखते है
प्रश्नवशात् एकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी ।
__ (राजवा० १-६) अर्थात् प्रश्नवश एक वस्तु में अविरोध रूप से विधि-निषेध अर्थात् अस्ति नास्ति की कल्पना सप्तभंगी कहलाती है।
(जनशासन पृष्ठ १८६)