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डा० थामस के उद्गार बडे महत्त्वपूर्ण है
न्यायशास्त्र मे जैनन्याय का वहुत ऊचा स्थान है । स्याद्वाद
की भिन्न-भिन्न परि
का स्थान वडा गभीर है । यह वस्तुओं स्थितियो पर अच्छा प्रकाश डालता है ।
भारतीय विद्वानो मे निष्पक्ष आलोचक स्व० पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना अधिक उद्बोधक है
प्राचीन डर्रे के हिन्दू धर्मावलम्वी वडे - वड़े शास्त्री तक अव भी नही जानते कि जैनियो का "स्याद्वाद" किस चिड़िया का नाम है | धन्यवाद है- जर्मन, और इगलैड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञो को, जिन की कृपा से इस धर्म के अनुयायियो के कीर्तिकलाप की खोज की ओर भारतवर्ष के इतर जनो का ध्यान आकृष्ट हुआ । यदि वे विदेशी विद्वान जैनो के धर्मग्रन्थो की आलोचना न करते, उन के प्राचीन लेखको की महत्ता प्रकट न करते तो हम लोग शायद आज भी पूर्ववत् अज्ञान के अन्धकार डूबते रहते ।
राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी जी ने लिखा है - "जिस प्रकार स्याद्वाद को मैं जानता हू उसी प्रकार मैं उसे मानता हू । मुझे अनेकान्तवाद वडा प्रिय है ।
श्रीयुत महामहोपाध्याय सत्यसम्प्रदाचार्य प० स्वामी राममिश्र जी ने लिखा है
स्याद्वाद जैनधर्म का अभेद्य किला है। जिसके अन्दर प्रतिवादियो के मायावी गोले प्रवेश नही कर सकते ।"
इन उद्धरणो से स्पष्ट हो जाता है कि स्याद्वाद केवल जैनो का ही प्रिय सिद्धान्त नहीं रहा, प्रत्युत गुणग्राही, विचारक, शास्त्रज्ञ जैनेतर विद्वानो ने भी इसका पूरा-पूरा सम्मान किया
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