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जन्म से कोई सुन्दर, उच्च या पूज्य नही है, और जन्म से हो कोई असुन्दर, नीच या अपूज्य नही है। सुन्दरता, उच्चता या पूज्यता का सम्वन्ध केवल आत्मिक जीवन से है। जाति के साथ उस का कोई सम्बन्ध नहीं। जैन-दर्शन मे जन्मना जाति को कोई महत्त्व प्राप्त नही है, वहा तो संयम की ही पूजा होती है। कितना सुन्दर कहा है
जाति को काम नही जिन मारग।
संयम को प्रभु आदर दीने ॥ कर्मवाद का विवेचन करते हुए भगवान महावीर ने स्वय फरमाया है
कम्मुणा बभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मणा । अर्थात्-मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है। भाव यह है कि जन्म से कोई अछूत या अस्पृश्य नही है। और जीवनोन्नति और अवनति का कारण मनुष्य का अपना कर्म है।
किसी के यहा *शूद्र तथा नारी को धर्मशास्त्र पढने या सुनने का भी अधिकार नहीं है। कोई कहता कि नारी जीवन कभी मुक्ति प्राप्त नही कर सकता। नारी किसी भी स्थिति मे स्वतत्र रहने योग्य नहीं है, क्योकि वह पुरुष प्रधान है अर्थात् उस पर पुरुप का स्वामित्व है। कोई कहता है, कि स्त्रिया, 'न स्त्रीशूद्रौ वेदमधीयताम् ।
अस्वतत्रा स्त्री पुरुपप्रधाना । वगिप्ठस्मृती ५-१ । * स्त्रियगे वैश्यास्तथा शूद्रा , येऽपि म्यु पापयोनय । गीता ९-३२
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