________________
जिस प्रकार कर्मसिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीव शुभ कर्म द्वारा उन्नति का अवसर प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार कर्मसिद्धात के अनुसार प्रत्येक जीव अशुभ कर्म के द्वारा अपना भविष्य बिगाड भी लेता है। हिसा, असत्य ग्रादि दुप्कर्मो द्वारा वह दुर्गतियो मे जा पडता है । भाव यह है कि शुभ कर्म से मनुष्य जीवन को वना भी सकता है। और अशुभ से उसे विगाड भी लेता है। जीवन को बनाने वाले और बिगाडने वाले जीव के अपने किए हुए कर्म ही है और इन कर्मो के करने मे जीव सर्वथा स्वतन्त्र है । चाहे वह शुभ कर्म करे चाहे अशुभ, यह उस को इच्छा की बात है। ईश्वर न उस मे साधक बनता है और न वाधक बनता है। इसीलिए भगवान महावीर कहते है कि कर्म करने मे जीव स्वतत्र है । ईश्वर जोव से न अच्छा कर्म कराता है, और न बुरा कर्म कराता है । यदि सक्षेप मे कहे तो, ईश्वर का जीव के किए हुए कर्म के साथ कोई भी सम्बन्ध नही है ।
कर्मफल भोगने मे जीव परतंत्र हैभगवान महावीर का कर्म-सिद्धान्त कहता है कि जीव कर्म करने में सर्वथा स्वतत्र है, अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म करना चाहे वह कर सकता है। किन्तु उसका फल भोगने मे वह स्वतत्र नहीं है, परतत्र है। उसकी अनिच्छा से कर्म का फल रुक नही सकता। कर्म करना या न करना यह जेसे मनुष्य के वश मे होता है, वैसे कर्म का फल भोगना या न भोगना यह उसके वश को वात नही है। जब तक किया गया कर्म यदि तप, जप और सयम प्रादि धार्मिक अनुष्ठानो द्वारा क्षय नही किया जाता तब तक उससे पिण्ड नही छूट सकता । समय