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दुःख देता है ।
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सुख और दुख के वीज मनुष्य की भावनाओ मे छुपे रहते है । सुख दुखो के झूले पर झूलने वाला हमारा वर्तमानकालिक जीवन एक वृक्ष के समान है । उस के बीज हमारे अन्तर्जीवन को भूमि पर कही न कही प्रच्छन्न रहते है । यह वात अलग है कि एक अल्पज्ञ व्यक्ति इस सत्य का साक्षात्कार न कर सके । किन्तु उनको सत्यता से इन्कार नही किया जा सकता है । वही वोज अव्यात्म जगत मे कर्म के नाम से व्यवहृत किए जाते है । ये कर्म ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं ।
भारत के एक मनीषी सन्त ने इस सम्बन्ध मे कितनी सुन्दर बात कही है
सुखस्य दुखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धि रेषा |
अह करोमीति वृथाभिमानः, स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोक• ॥
अर्थात् सुख दुख को देने वाला अपना ही शुभाशुभ कर्म है । सुख दुख का दाता ईश्वर या अन्य किसी दैविक शक्ति को समझना एक वडी भारो भ्रान्ति है । मनुष्य का "मैं ही सव कुछ करता हू" ऐसा ग्रभिमान करना भी व्यर्थ सारा ससार अपने कर्म रूप सूत्र से ही ग्रथित है ।
है वास्तव मे
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इसी सत्य को हिन्दी कवि ने भी स्वीकार किया है । वह
कहता है