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(५९) अप्पा कत्ता विकत्ता य, सुहाण या दुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, सुप्पट्ठिओ दुप्पट्ठिओ ॥ .
अर्थात्- आत्मा स्वय ही अपने सुखो और दुसो का कर्ता है, भोक्ता है। मित्र शत्रु भो यह स्वय ही है । अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और बुरे मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना शत्रु वन जाता।
__ कर्म स्वय अपना फल देता हैभगवान महावीर का विश्वास है कि कर्म-फल के भुगतान के लिए ईश्वर नाम की किसी शक्ति को कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है। फल देने की क्षमता कर्म-परमाणुओ मे ही निवास करती है। कर्म स्वय ही अपना फल दे डालता है। जिस प्रकार एक मनुष्य मदिरापान करता है और उस से मनुष्य पर जो प्रभाव पड़ता है, उस के लिए मदिरा के परमाणु ही कारण है, ईश्वर या कोई अन्य दैविक गक्ति उस मनुष्य को पत्ते उस्तरे के समान तेज धार वाले होते है। नरक को गरमी से व्याकुल हुआ नारकी जब इस की छाया में जाता है तो उस के शरीर पर उस वृक्ष के पत्र गिरते है और उसे उतरे की धार की तरह काटते चले जाते है। ___कामधेनु गौ और नन्दन वन स्वर्गीय सम्पति है। कामधेनु गौ से समस्त कामनाए पूर्ण होतो हे, और नन्दनबन यानन्दप्रद है, इस मे देवी-देवता भ्रमण किया करते है । आत्मा अपने ही शुभाशुभ आचरण से इन सब को प्राप्त करता है, इस लिए आत्मा को कामवेनु गो, नन्दनवन, वैतरणी और शामली वक्ष कहा गया है।
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