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(४०) भिन्न नहीं है, उसीका एक रूप है,क्योंकि भिन्न २ आकारों में परिवर्तित स्वर्ण जब कुण्डल, कड़ा, आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है नो उम स्थिति में प्राकार सुवर्ण से सर्वथा भिन्न कैसे हो सकता है। अब देखना है कि इन दोनों स्वरूपों में विनाशी-स्वरूप कौनसा है ? और नित्य कौनसा ? यह प्रत्यक्ष है कि कुण्डल आदि का आकार स्वरूप विनाशी है । क्योंकि वह बनता है और बिगड़ता है, पहले नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा। और कुण्डल का जो दूसरा स्वरूप सुवर्ण है, वह अविनाशी है, क्योंकि उसका कभी नाश नहीं होता। कुण्डल के निर्माण से पूर्व भी वह था और उस के बनने पर भी वह मौजूद है । जब कुण्डल नष्ट हो जायगा नब भी वह मौजूद रहेगा। प्रत्येक दशा में सुवर्ण, सुवर्ण ही रहेगा। सुवर्ण अपने आप में स्थायी तत्त्व है। उसे बनना बिगड़ना नहीं। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि कुण्डल का एक स्वरूप विनाशी है और दूसरा अविनाशी। एक बनता है और नष्ट होता है, परन्तु दूसरा हमेशा बना रहता है, नित्य रहता है। अतः अनेकान्तवाद की दृष्टि सेकुएडल अपने आकार की दृष्टि से विनष्ट होने के कारण अनित्य है, और मूल सुवर्ण अविनाशी रूप से नित्य है। इस प्रकार एक ही पदार्थ में परस्सर विरोधी जैसे दीखने वाले नित्यता और अनित्यतारूप विवध धर्म पाए जाते है और इन धर्मों को सिद्ध करने वाला सिद्धान्त अनेकान्तवाद सिद्धान्त है।
इस के अलावा जिस प्रकार पितृत्व और पुत्रत्व ये दोनों धर्म परस्पर विरोधी प्रतीत होते हुए भी एक ही-पुरुष में निर्विरोध रहते हैं, उनी प्रकार और-और धर्म भी विना विरोध के एक जगह रह सकते हैं। विभिन्न अपेक्षाएं सब विरोध समाप्त कर देती हैं। जैसे जिस अपेक्षा से कोई पुरुष क्रिसी का.पिता है. उसी अपेक्षा से यदि उसे किसी का