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अर्थान--इस चराचर जगत मे वेदविहित हिसा को अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योकि वेद से ही धर्म का निर्णय होता है।
इस प्रकार यज्ञों के नाम पर हिंसा की प्रतिष्टा चल रही थी। भगवान महावीर को सर्वप्रथम इसी यज्ञहिसा से लोहा लेना पड़ा था। भगवान ने इस यज्ञहिंसा का प्रबल विरोध किया, इसे पाप बतलाया
और कहा-हिंसा हिंसा है, चाहे वह यज के नाम पर हो, चाहे वह किसी धर्मग्रन्थ को माध्यम बना कर की जाए। भगवान ने डंके की । चोट से फरमाया कि स्वार्थवश किए गए किसी के जीवन के विनाश को
अहिंसा का रूप नहीं दिया जा सकता। हिंसा आग है, फिर वह अपने घर की हो या पडौसी के घर की। आग का स्वभाव जलाना है। वह जहां भी होगा, वहीं जलाएगी। इमी प्रकार हिंसा की आग जहा जलती है वहां अहिंसा का पौधा जीवित नहीं रह सकता । अत. मानव को हिंसा से सदा बचना चाहिए और अहिंसा को अपने जीवन का साथी बनाना चाहिए।
इस के अलावा विश्व के सभी जीव जीना चाहते है, मरना कोई नहीं चाहता, दुख और वेदना सभी को अप्रिय है। इसलिए भी किसी को दुःख नहीं देना चाहिए । दूसरों को सता कर प्राप्त किय गया सुख सच्चा सुख नहीं हो सकता। क्योंकि यदि व्यक्ति अपने सुख के लिए दूसरों को सताता है तो समय पाकर दूसरा व्यक्ति भी पहले व्यक्ति को सताएगा। इसी प्रकार यदि हिंसाजन्य सुख को प्राम करने का सिद्वान्त पनप उठे तो एक दिन सभी जीव दुखी हो जाएगे, *सव्वे पारणा पियाउया सुहसाया, दुक्खपडिकूला अप्पियवहा जीविणो, जीविउकामा, सब्जेसिं जीवियं पियं ।
(आचाराग सूत्र, अ.२, उ०३. सूः ८७)