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जीवन-निर्वाह के लिए अन्य अनेकों व्यवसाय करने हैं, अत वह अहिंसा को पूर्ण रूप से जीवन में उतार नहीं मकता ।। साधु की भांति कनक कामिनी का सर्वथा त्यागी नहीं बन सकता है। इसलिए वह केवल निरपराधी त्रस (इधर उधर आने जाने वाले) जीवो की हिंसा का त्याग करता है। गृहस्थ की इसी अहिंसावृत्ति का नाम शास्त्रीय भापा में अणुव्रत अहिंसा है। अहिंसा की उपयोगिता
भगवान महावीर के युग में जो धार्मिक अनुष्ठान किए जात थे, उन मे मुख्य यज्ञ था। यज्ञों में वेद मंत्रो द्वारा अत्यधिक मात्रा में हिंसा होती थी। पशुवध के विना यन पूर्ण नहीं होते थे । यज्ञों में घोडों, गौओं और मनुष्यों की वलि दी जाती थी। देवी-देवताओं के नाम पर अन्य अनेक प्रकार के पशुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता था। इस पर भी उसे धर्म का रूप दिया जाता था । मनुस्मृति अध्याय ५ श्लोक २२-३६-४४ में लिखा है
"यज्ञार्थ ब्राह्मणैर्वध्याः, प्रशस्ता मृगपक्षिणः"
अर्थात्-ब्राह्मण को प्रशस्त पशु और पत्तियों का यज्ञ के लिए वध करना चाहिए।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः, स्वयमेव स्वयम्भुवा । यज्ञस्य भ भूत्यै सर्वस्य, तस्माद् यज्ञे वधोऽवध. ॥
अर्थात्-सव यज्ञों के ऐश्वर्य के लिए स्वयं ब्रह्मा ने पशुओं को यज के लिए ही बनाया है । अतः यज्ञ में होने वाली हिंसा भी अहिंसा
या वेदविहिता हिंसा, नियताऽस्मिश्चराचरे । अहिंसामेव तां विद्या-द्व दाद्धर्मो हि निर्वभौ ।।