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भारत को शुद्ध घी दूध मक्खन अन्न और फल भेजते हैं और यह अहिंसावाद का ढिएडोरा पोटने वाला अध्यात्मवादी भारत उन देशों में गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि निरीह प्राणियां के मास, आन्तें. जिगर और हड्डा भादि भेजता है। क्या विदेश में पशु नहीं हैं ? विदेशी क्या उन पशुओं से मांस आदि की अपनी आवश्यकता पूरी नहीं कर सकते ? उत्तर स्पष्ट है कि वे राष्ट्र भारत जैसे बुद्धिहीन नहीं हैं कि अपने देश के पशुओं का संहार करें । सन् १६५५-५६ ई० की सरकारी आयात-निर्यात रिपोर्ट के अनुमार ज्ञात होता है कि उक्त काल में भारत ने ३७,८८,७६,०७६ रुपए लेकर गाय, बछड़े, भेड़, बकरी, भैंस आदि के चमड़े, हड्डी, मांस, चर्बी, सुखाया हुआ खून तथा मछली आदि प्राणिजन्य पदार्थ विदेशी राष्ट्रों के हाथ बेचे । इसके लिए करोड़ों निरीह प्राणियों की हत्या की गई। १९५४-५५ में निर्यात की यह सख्या केवल ३६ करोड़ ३२ लाख रुपए तक ही थी। इससे ज्ञात होता है कि कुतल किए गए पशुओं की संख्या में लगभग डेढ लाख की वृद्धि केवल दो वर्षों में
हो गई है। इस गति से यदि इन निरोह पशुआ की हत्या होती रही तो यह देश एक दिन रसातल को पहुच जाएगा ।
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अब देखिए, विदेशा भारत को क्या देते हैं ? १६५३-५४ ई० की आयात रिपोर्ट के अनुसार ४,५६,११,३७२ रुपए का दूध का पाउडर तथा लगभग ६ लाख रुपए का घी विदेशों से आया। इस संख्या मे दो हो वर्षों में बहुत अधिक वृद्धि हा गई । १६५५-५६ में ५,८८३५,६८८ रुपए का दूध का पाउडर तथा १,५८,३३,५४६ रुप का घी अन्य देशों से भारत में आया । इसके अतिरिक्त केवल अमेरीका ने लाखों रुपए का था तथा दूध का पाउडर बिना मूल्य लिए ही भारत को उपहारस्वरूप प्रदान किया ।
एक नया हिंसक व्यापार :
भारत ने एक और नया व्यापार अपनाया है जिस का आधार