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राज चौहान और जयचढ यदि आपस में न लडते और पृथ्वीराज को पराजित करने के लिए यदि जयचंद शहाबुद्दीन गौरी को निमत्रित न करता तो भारत कभी परावीन नहीं हो सकता था। जयचद ने स्वय उस यवन बादशाह को बुलाया और उसके साथ मिल कर पृथ्वीराज को हराया और अन्त मे भारत को दासता की बेडियों मे जकड़ाया । यह एक ऐतिहासिक सत्य है, इसे किसी भी तरह मुठलाया नहीं जा सकता। अत भारत की परावीनता का कारण अहिंसा नही कहा जा सकता । उस का कारण तो अपने घर की फूट ही है। अहिंसा के दो रूप
अहिंसा को महाव्रत और अणुव्रत भी कहा जाता है। अहिंसा जब पूर्णरूप से ग्रहण कर ली जाती है मन, वाणी और काया से पूर्णतया उमे अपनाया जाता है तब वह महाव्रत कहलाती है, किन्तु जब उसे आशिक रूप से धारण किया जाता है, कुछ छूटो के साथ अपनाया जाता है । तब वह अणुव्रत कही जाती है। जैन साधु मन, वाणी
और शरीर से हिंसा का सर्वथा परित्याग कर के मन, वाणी और शरीर से अहिंसा को धारण करता है, इमलिए उस की अहिंसा महाव्रत अहिसा है । किन्तु श्रावक साधु जैसी पूर्ण अहिंसा को नहीं धारण करता। उसे आंशिक रूप से अपनाता है, इमलिए उसकी अहिंसा अणुव्रत अहिंसा कहलाता है।
गृहस्थ पर अनेकों उत्तरदायित्व हैं, उसे अपने परिवार का पालन-पोपण करना होता है, सामाजिक वातावरण से निपटना पड़ता है। उसे बच्चों का विवाह करना है, मकान बनाने हैं, देश जाति की रक्षा के लिए आततायो और विरोधी लोगों का सामना करना है, उस के संरक्षण और सम्वर्धन योग्य साधन जुटाने हैं, इस के अलावा