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भी नैनधर्म मे प्राप्त नहीं हो सकती है। इसके अलावा,जैनधर्म पृथ्वी में,जल में, वायु में, अग्नि में, वनस्पति आदि में जीवों की सत्ता मान कर उन की यथाशक्य संरक्षा का दृढ़ता के साथ विधान करता है। स्थानकवासी साधु वायुकायिक जीवों के संरक्षण के लिए ही मुख पर मुखवस्त्रिका का सदा प्रयोग करता है। परन्तु जैनेतर धर्मों में ऐसे अहिंसक विधाना को कोई स्थान नहीं है। अहिंसा के विषय में जैनधर्म की सूक्ष्मता, व्यापकता, यथार्थता तथा विशेषता दूसरा कोन पकड सका है ? इसीलिए अहिंसा को जैनधर्म का प्राण कहना सर्वथा युक्तियुक्त तथा शास्त्रीय है। अहिंसा एक यज्ञ है
अहिंसा को यज्ञ भी कहा जा सकता है । इस यज्ञ में यह विशेषता है कि इसमे अग्नि की कोई आवश्यकता नहीं है। इसमें केवल तपस्या की आग जलानी पड़ती है। पृथ्वी को खोदकर कुण्ड बनाने का भी इस मे कोई प्रयोजन नहीं होता। अहिंसा के महायज्ञ मे जीवात्मा ही अग्नि
शशकूर्मयोस्तु मांसेन, मासानेकदशै व तु ॥ सम्वत्सर त गव्येन, पयसा पायसेन च । बाधीणमस्थ मांसेन, तृप्तिदश वापिकी ॥
(मनु० अ०३/२६८-२६६-२७०-२७१) अर्थान्-मत्य के मास मे दो मास, हिरगा से तीन माम, मेढे में चार, पक्षियों में पाच, बकरे में , चितम्बर हिरण से सात, काल मृग में पाठ, कर मृग मे नी, सूयर और भने से दम, ग्वरगोश पौर या में ग्यारह, गौ के दूध मे १ वर्ष, मफट और पुराने बकरे माम से १२ वर्ष तक पितर तृप रहते हैं।
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