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अतः दानादि भी सूक्ष्म दृष्टि से, विवेक और शास्त्र - मर्यादा का पूर्णतया पालन करते हुए करना चाहिए ।
बाईसवें 'भावविशुद्धिविचाराष्टकम्' में निर्दिष्ट है कि भावशुद्धि मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाली है । यह आगमोपदेशानुरागिणी है और स्वमताग्रह रहित है । चित्त को दूषित करने वाले राग-द्वेष और मोह, चित्त की शुद्धता को असम्भव बना देते हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से युक्त गुणियों के पराधीन रहना ही मोहादि के ह्रास का कारण है । सद्गुणियों की अधीनता चित्त - शुद्धता का प्रधान कारण है । सद्गुणियों का अत्यधिक आदर करने वाला श्रमण निश्चित रूप से भावशुद्धि प्राप्त करता है ।
तेईसवें 'शासनमालिन्यनिषेधाष्टकम्' में उपदेश दिया गया है कि जिनशासन की अवमानना से यथासम्भव बचना चाहिए। यह पाप का प्रधान हेतु है । अज्ञानतापूर्वक भी जिनशासन की अवमानना करने वाला दूसरे प्राणियों के मिथ्यात्व का कारण बन जाता है और स्वयं तीव्र मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का बन्धन करता है । इसके विपरीत जिनशासन की प्रभावना करने वाला दूसरे प्राणियों के सम्यक्त्व की प्राप्ति का हेतु रूप होने से स्वयं सम्यक्त्व प्राप्त करता है, जो उसे अन्ततः मोक्ष सुख की ओर ले जाता है । चौबीसवें 'पुण्यानुबन्धिपुण्यादिविवरणाष्टकम्' में निरूपित है कि शुभ बन्ध के निमित्त पुण्य कृत्यों का आचरण करना चाहिए। शुभ बन्ध के कारण पुरुष शुभ भव से शुभतर भव में जन्म लेता है, जबकि अशुभ बन्ध के कारण मनुष्य वर्तमान भव की अपेक्षा अशुभतर भव में जन्म पाता है । चित्त की विशुद्धि से शुभ बन्ध होता है । चित्त की शुद्धि ज्ञानवृद्धों की आज्ञा में रहने और आगमसम्मत आचरण करने से होती है ।
पचीसवें 'पुण्यानुबन्धिपुण्यप्रधानफलाष्टकम्' में आचार्य द्वारा निरूपित है कि शुभ बन्ध सद्धर्म के पालन में बाधक नहीं है। माता-पिता की शुश्रूषा रूप प्रवृत्ति उचित है । गुरुजनों के वैयावृत्य रूप ये प्रवृत्तियाँ वास्तव में प्रव्रज्या की आदि और उत्तम मङ्गल रूप हैं । शुभ बन्ध से सर्वोत्तम फल तीर्थङ्करत्व की भी प्राप्ति होती है ।
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छब्बीसवें 'तीर्थकृद्दानमहत्त्वसिद्ध्यष्टकम्' में चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर द्वारा प्रव्रज्या के समय दिया गया दान महान् है, इसका प्रतिपादन है । बौद्धों का तर्क है कि बौद्धपिटकों में बोधिसत्त्वों का दान असंख्य प्रतिपादित होने से महान् कहा जा सकता है परन्तु जैनागमों में स्पष्ट रूप से तीर्थङ्कर कृत दान - राशि संख्या में वर्णित है, इसलिए उसे महान् नहीं कहा जा सकता है। उन ( बौद्धों ) के तर्क का खण्डन करते हुए आचार्य
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