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बारहवें ‘वादाष्टकम्' में वाद तीन प्रकार का निरूपित है शुष्कवाद, विवाद तथा धर्मवाद । निर्ग्रन्थ का, अत्यन्त अभिमानी, क्रूर हृदय, जिनधर्मद्वेषी तथा मूर्ख के साथ वाद 'शुष्कवाद' है । इस वाद में श्रमण की विजय होने पर पराजित वादी आत्महत्या आदि कर सकता है । श्रमण की पराजय से जिनधर्म के माहात्म्य की हानि होगी। इस प्रकार यह वाद दोनों रूपों में अनर्थकर है । वाक्छल और जाति की प्रधानता वाले 'विवाद' में वस्तु-तत्त्व का कथन करने वाले श्रमणों की विजय दुष्कर है। श्रमण का माध्यस्थ भाव युक्त तथा तत्त्वज्ञ के साथ वाद 'धर्मवाद' है ।
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तेरहवें 'धर्मवादाष्टकम्' के अनुसार धर्मवाद का विषय मोक्षोपयोगी है। सभी धर्मावलम्बियों के लिए पवित्र अहिंसा, सत्य आदि धर्मवाद के विषय बनते हैं । धार्मिकों के लिए प्रमाण के लक्षण पर विचार करना निष्प्रयोजन है । सद्वृत्तों को, वस्तु के जिनकथित यथास्वरूप को माध्यस्थ भाव से प्रमादरहित होकर, विचार करना चाहिए ।
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चौदहवें 'एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्' में 'आत्मा शाश्वत नित्य है' इस मत का निराकरण किया गया है। आचार्य के अनुसार शाश्वत आत्मा के अकर्त्ता ( निष्क्रिय ) होने से उसमें हिंसा, असत्य आदि घटित नहीं होंगे; जिसका निहितार्थ होगा कि अहिंसा, सत्य आदि भी घटित नहीं होंगे । पुनः हिंसादि के अभाव में सारे यम-नियमादि अनुष्ठान भी घटित नहीं होंगे और अन्ततः आत्मा का शरीर के साथ संयोग भी अयुक्तिसङ्गत सिद्ध हो जायगा । इसी प्रकार आत्मा की सर्वव्यापकता से संसार-चक्र अतार्किक हो जायेगा ।
चौदहवें 'एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्' और पन्द्रहवें 'एकान्तअनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्' में आचार्य हरिभद्र क्रमशः उन मतों का खण्डन करते हैं जो आत्मा को एकान्त नित्य, एकान्त अनित्य, शाश्वत और अकर्त्ता तथा सर्वथा क्षणिक मानते हैं ।
सोलहवें 'नित्यानित्यपक्षमण्डनाष्टकम्' में हरिभद्र प्रतिपादित करते हैं कि नित्यानित्य तथा शरीर से भिन्नाभिन्न होने के कारण आत्मा में हिंसादि घटित होते हैं । यद्यपि हिंस्य ( जिसकी हिंसा हो ) के कर्म का उदय होने से हिंसा होती है परन्तु हिंसक निमित्त कारण है। हिंसा दूषित चित्त के कारण होती है। हिंसादि दुष्प्रवृत्तियों से विरति, गुरुओं अथवा जिनों के सदुपदेश से तथा प्रशस्त भावों के अनुबन्ध से होती है । आत्मा के नित्यानित्यादि स्वभाव की सिद्धि स्मरण, प्रत्यभिज्ञा आदि प्रमाणों तथा देहस्पर्शवेदना एवं परम्परा से भी होती है ।
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