Book Title: Ashtakprakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 13
________________ [ ix ] जाती है। भाव पूजा से आत्मा के भाव प्रशस्त हो जाते हैं और अन्ततः निर्वाण प्राप्त होता है। ___ चतुर्थ 'अग्निकारिकाष्टकम्' में श्रमणों को उपदेश दिया गया है कि उन्हें कर्मरूपी ईंधन, प्रबल शुभभावनारूपी आहुति और धर्मध्यानरूपी अग्नि से अग्निकारिका करनी चाहिए। दीक्षा मोक्ष का साधन है। पूजा से प्राप्त समृद्धि से पाप-वृद्धि होती है। दानादि धर्म-कृत्यों से पाप-विशुद्धि सम्भव नहीं है। पापक्षय केवल तप से होता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप मोक्ष-मार्ग का सेवन करने से शुभतर और विशुद्ध समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं। पाँचवें "भिक्षाष्टकम्' में भिक्षा के तीन रूपों - सर्वसम्पत्करी, पौरुषघ्नी और वृत्तिभिक्षा का प्रतिपादन है। आदर्श साधु द्वारा स्थविर, ग्लान आदि के लिए भ्रमर-वृत्ति से की गई भिक्षा सर्वसम्पत्करी है। यह जिनशासन माहात्म्य में वृद्धि करने वाली है। श्रमणवेशधारी होते हुए भी श्रमणाचार के प्रतिकूल आचरण करने वाले की मात्र जीविका हेतु भिक्षा पौरुषघ्नी भिक्षा कही जाती है। जीविकोपार्जन के अन्य साधनों के अभाव में निर्धन, नेत्रहीनादि द्वारा जीविका हेतु माँगी गयी भिक्षा वृत्तिभिक्षा है। यह पौरुषघ्नी की अपेक्षा अच्छी मानी जाती है। षष्ठ 'सर्वसम्पत्करीभिक्षाष्टकम्' मुख्य रूप से अन्य मतावलम्बियों की इस युक्ति का खण्डन करता है कि सर्वसम्पत्करी भिक्षा के अनुरूप विशुद्ध पिण्ड-दान व्यावहारिक नहीं है। इस पिण्ड की अनुपलब्धि अन्तत: सर्वज्ञता का भी निषेध कर देती है। विपक्षियों का तर्क है कि विशुद्ध पिण्ड के अभाव में श्रमणों का चारित्र विशुद्ध नहीं हो सकता और श्रमणों का चारित्र विशुद्ध नहीं होने से सर्वज्ञता स्वत: बाधित हो जाती है। हरिभद्र विशुद्ध पिण्ड की उपलब्धता युक्तिसङ्गत बताते हैं और इस प्रकार प्रकारान्तर से सर्वज्ञता की सिद्धि करते हैं। सप्तम 'प्रच्छन्नभोजनाष्टकम्' में आचार्य ने निरूपित किया है कि प्रच्छन्न रूप से एकान्त में भोजन ग्रहण करना ही श्रमण के लिए सङ्गत है। अप्रच्छन्न रूप से उसके द्वारा आहार-ग्रहण अनुचित है। अप्रच्छन्न आहारग्रहण करने पर क्षुधा-पीड़ित दीनादि याचकों द्वारा माँगे जाने पर उनको आहार दान करने पर उसे पुण्य बन्ध होगा और आहार न देने पर जिन-शासन के प्रति उनके मन में द्वेष पैदा होगा। इन दोनों अशुभ स्थितियों से बचने के लिए श्रमणों को प्रच्छन्न आहार ग्रहण करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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