Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 23
________________ में प्रकाशित हुआ । भगवान महावीर के पूर्वभवों तथा वर्तमान जीवन का श्वेताम्बर मान्यतानुसार सात काण्डों में वर्णन है। इसकी काव्य भाषा अवधी है। 30. तीर्थंकर श्री वर्धमान श्वेताम्बर यति मोतीहंस ने पंडित कल्याणविजय के 'श्रमण महावीर' के आधार पर इसकी सर्जना की। इसमें 11 सर्ग हैं। प्रथम दो सर्गों (च्यवन कल्याणक, जन्म कल्याणक) का प्रकाशन सन् 1959 में जैन श्वेताम्बर संघ, भोपाल से हुआ है। 31. तीर्थंकर भगवान महावीर यह खड़ी बोली में कवि वीरेन्द्रप्रसाद जैन की कृति है। श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगंज, एटा से सन् 1959 तथा 1965 में प्रकाशित हुई है। तीर्थंकर महावीर विषयक कथा 8 सर्गों में 1111 छंदों में निबद्ध है। कथानक का भाव स्पष्ट करने के लिये कहीं-कहीं सुन्दर और रंगीन चित्र भी दिये हैं। इसमें दिगम्बर मान्यतानुसार कथावस्तु है किन्तु कुछ घटनाओं का समावेश श्वेताम्बर मान्यतानुसार भी किया है । कवि वीरेन्द्रप्रसादजी ने अनूप शर्मा कृत 'वर्धमान' महाकाव्य में जैन कवियों को खटकने वाला त्रिशला रानी का सौदर्य वर्णन तथा ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता मानने संबंधी जैन मान्यतानुसार न होने की भावना से प्रेरित होकर इसकाव्य की रचना की है। 32. जय सन्मति प्रो. हीरालाल पांडे 'हीरक' ने सन् 1953 में 'जय सन्मति' का सृजन किया। यह सन् 1959 में सन्मति साहित्य मंदिर, भोपाल द्वारा प्रकाशित है। इस काव्य की भूमिका में उल्लिखित है कि कवि को 'जयसन्मति' नामकरण की प्रेरणा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 'सबको सन्मति दे भगवान' वाली प्रार्थना से मिली तथा 'सन्मति' भगवान महावीर के पाँच नामों में से एक है। इसमें 8 सर्ग हैं। काव्य के प्रारम्भ में भारतभूमि का गौरवगान किया, तत्पश्चात् भगवान महावीर का आद्योपांत जीवनवृत्त दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मान्यतानुसार वर्णित है। - - 12 33. महावीर ललितपुर के कवि श्री हरिप्रसादजी 'हरि' ने 'महावीर' काव्य की रचना की। इसके बारे में उनके सुपुत्र ( पालीवाल, ललितपुर) द्वारा जानकारी मिली है कि प्रकाशन के पूर्व यह कृति कहीं गुम हो गई अतः सम्प्रति अप्रकाशित है। कवि सुधेशजी ने लिखा है कि आज से 14 वर्ष मैंने ललितपुर के कवि हरिप्रसादजी 'हरि' से भगवान महावीर विषयक लिखे जाने वाले महाकाव्य के कुछ छंद सुने थे। 11 हरिप्रसाद 'हरि' के अप्रकाशित 'महावीर' महाकाव्य का कुछ अंश 'ओ विहार, वर वसुन्धरे' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। 34. परम ज्योति महावीर कवि धन्यकुमार जैन 'सुधेश' द्वारा खड़ी बोली में सृजित सन् 1960 की कृति है। सन् 1961 में श्री फूलचन्द जवरचन्द गोधा जैन ग्रंथमाला, इन्दौर से प्रकाशित हुई। इसमें 23 सर्ग हैं। सर्वत्र एक ही छंद प्रयुक्त है। प्रत्येक सर्ग में 108 छंद है तथा प्रस्तावना के 33 छंद मिलाकर कुल 2519 छंदों का महाकाव्य है । कवि ने सर्ग संख्या, छंद संख्या रखने का कारण भी बताया है। कवि सुधेशजी ने इसे 'करुण, धर्मवीर एवं शांतरस प्रधान महाकाव्य' कहा है । घटनाओं की पुष्टि के लिये सुन्दर चित्र भी दिये हैं। इसकी विशेषता यह है कि कवि ने भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन न करके उनके वर्तमान जीवन की घटनाओं, उपदेशों तथा उनके चातुर्मासों का विस्तृत वर्णन किया है। Jain Education International - 35. वीरायन ( महावीर मानस महाकाव्य) हिन्दी के सुप्रसिद्ध जैनेतर कवि रघुवीरशरण 'मित्र' कृत 'वीरायन' भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाणोत्सव वर्ष (सन् 1974 ) में सृजित एवं प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन भारतोदय प्रकाशन, मेरठ से हुआ। कवि ने भगवान महावीर के जीवन संबंधी जानकारी हासिल करने उनसे संबंधित स्थानों का भ्रमण किया था। उन स्थलों की खोजपूर्ण यात्राओं से प्राप्त तथ्यों, साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 21 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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