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कर देते हैं जो खंड-खंड होकर भी अपने निर्माण काल की कहानी दोहराते रहते हैं। कोई विक्षिप्त समूह इस सोच से कि मूर्ति खंडित होकर कुछ नहीं कहेगी, मूर्ति भले ही खण्डित कर दे पर पुस्तक में प्रकाशित कई खंडित शिल्प हमें 4थी शताब्दी की यात्रा करा देते हैं। भारत के इतिहास का मध्य युग तो पूर्णत: साकार हो गया है। मध्य युग में जैन संघ कितना शक्तिशाली था इसकी
सहज ही कल्पना की जा सकती है। चित्रों एवं मुद्रक के चयन में सावधानी जरूरी है। 2. चित्रों के साथ उनका प्लेट क्रमांक व उनका परिचय भी ठीक से जाना चाहिये। शोधार्थी को
इससे बहुत सहायता मिलती है। मुखपृष्ठ के चित्र के नीचे भी परिचय नहीं है। 3. ऐसे प्रकाशनों के साथ चिंतन व प्राचीन इतिहास को अधिक छान-बीन के साथ प्रकाशित किया
जाना चाहिये। पुस्तक में कई जगह उनके संदर्भ सम्पूर्ण सूचना नहीं दे रहे हैं। अर्द्धसूचना कई बार गलत निर्णय पर पहुँचा देती है।
तीनों ही सुझाव विवाद को जन्म देने के लिये नहीं हैं। शोध केन्द्र का गुरुतर दायित्व भविष्य में अधिक प्रभावशाली ढंग से पूर्ण हो, इस सकारात्मक दृष्टि से ये सुझाव हैं।
मध्यप्रदेश का बहुत सा भाग सिंधु घाटी सभ्यता के साथ सह अस्तित्व में था, यह वह सत्य है जो वर्तमान में हो रही नवीनतम खुदाईयों से अनावृत्त हो रहा है। स्वर्गीय डॉ. वाकणकरजी भी इस विचार से किसी हद तक सहमत थे जो उन्होंने व्यक्तिगत चर्चा के बीच अभिव्यक्त भी किये थे। सभी जैन शिल्पों को हम सहेजें, उनका अध्ययन करें तो हो सकता है कि कोई कड़ी, कोई खिड़की हमें ऐसी मिल जाये जो हमें मुनिसुव्रतनाथ, शांतिनाथ, आदिनाथ के दर्शन उसी ऐतिहासिक रूप में करा दे जिस रूप में राम ने लंका में व भरत ने अष्टापद पर किये थे। प्रस्तुत पुस्तक इस यात्रा में महत्वपूर्ण मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है।
___डॉ. हरिहरजी द्विवेदी का प्राक्कथन में प्रकाशित यह वाक्य दोहराना चाहता हूँ - 'जैन बन्धु केवल धार्मिक भावना से प्रेरित होकर दर्शन हेतु मन्दिर जाते हैं। जैन शिल्प कला के अध्ययन की ओर उनकी प्रवृत्ति उदासीन ही दृष्टिगोचर होती है। इस संकेत को जैन संघ द्वारा आत्मसात् किया जाना चाहिये। खोजपरक प्रकाशन के लिये लेखक, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ व आर्थिक सहयोगियों को हार्दिक बधाई।
जिन ऋषियों ने वेद मंत्रों की रचना की, उन्होंने उसी समय वैदिक भाषा की भी रचना न कर डाली थी। वह भाषा एक सुदीर्घ विकास - परम्परा का परिणाम है।इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का निम्नलिखित तर्क विचारणीय है -
वेदों की भाषा का प्रकृत रूप क्या था, यह जानने के लिये निराधार कल्पना की जरूरत नहीं। वेदों की जो भाषा है उससे मिलती जुलती ही वह 'प्रकृत- भाषा' होगी, जिसे हम 'भारतीय भूल भाषा' कह सकते हैं। उस 'मूल भाषा' को 'पहली प्राकृत भाषा' समझिये। 'प्राकृत भाषा' का मतलब है 'जनभाषा'। जब वेदों की रचना हुई, उससे पहले ही भाषा का वैसा पूर्ण विकास हो चुका होगा। तभी तो वेद जैसे साहित्य को वह वहन कर सकी। भाषा के इस विकास में कितना समय लगा होगा। फिर, वेद जैसा उत्कृष्ट साहित्य चाहिये तो देखिये - क्या उस मूल भाषा या 'पहली प्राकृत' की पहली रचना ही वेद है? संभव नहीं। इससे पहिले छोटा-मोटा और हल्का - भारी न जाने कितना साहित्य बना होगा, तब वेदों का नम्बर आया होगा। सो वेदों की रचना के समय वह मूल भाषा पूरी तरह विकसित हो चुकी होगी और देश - भेद से या प्रदेश - भेद से उसके रूप भेद भी हो गये होंगे। उन प्रादेशिक भेदों में से जो कुछ साहित्यिक रूप प्राप्त कर चुका होगा, उसी में वेदों की रचना हुई होगी, परन्तु अन्य प्रादेशिक रूपों के भी शब्द प्रयोग ग्रहीत हुए होंगे।
- आचार्य किशोरीदास बाजपेयी, भारतीय भाषा विज्ञान, पृ. 113 - 114
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अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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