Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 78
________________ आरम्भ कर देती हैं। विचारों की तरंगें ही हमारे लिये मित्र बना देती है और शत्रु भी। विचारों की तरंगों का प्रभाव जानने के लिये डाक्टरों की एक टीम ने कुछ मनुष्यों का चेक अप किया। एक व्यक्ति जो हट्टा - कट्टा था, उसके डाक्टर मित्र ने बोला आज आपको क्या हो गया है? बड़े सुस्त से लगते हो। वह व्यक्ति बोला - मैं तो ठीक हूँ, फिर भी घर जाकर अपने चेहरे को शीशे में देखने लगा। उसे कुछ शक हुआ, वह दूसरे से, फिर तीसरे, चौथे डाक्टरों के पास गया। सभी ने पहले डाक्टर की पुष्टि करते हुए और अधिक रोग के लक्षण बता दिये और शाम होते होते वह हट्टा-कट्टा व्यक्ति वास्तव में बीमार पड़ गया और डाक्टरी इलाज चालू हो गया। उसके मित्र डाक्टर ने उसे केवल एक शीशी में साधारण पानी भरकर उसकी कुछ खुराकें उसे देते हुए कहा - यह एक बहुत बड़ी रामबाण औषध है, जल्दी ही ठीक हो जाओगे। इस साधारण पानी की उक्त दवा शुरु हो गई। दूसरे दिन डाक्टर ने कहा अब दवा ने पूरा प्रभाव दिखाया है, बुखार भी नहीं है, लगभग ठीक हो गये हो। डाक्टर के जाने के पश्चात् उस व्यक्ति ने फिर से अपना चेहरा शीशे में देखा। उसे लगा मैं तो स्वस्थ हो गया हूँ। अब दवा पीने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस बात को जानने के लिये वह अपने मित्र डाक्टर के पास गया। वह तो मिला नहीं, वह व्यक्ति दूसरे, तीसरे, चौथे डाक्टर के पास उनकी राय लेने पहुँचा। सभी ने कहा आश्चर्य, आप तो बिलकुल ठीक हो गये हो। वह बड़े उत्साह से अपने घर आया, फिर से शीशे में अपना चेहरा देखा और एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर गई। उसे विचार उठा कि अब मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ। कहने का तात्पर्य यह है कि विचारों का ही सब करिश्मा है। प्राप्त -6.12.99 * इंजीनियर 767 - ए, पश्चिमी अम्बर तालाब, शांतिनगर, रूढ़की-247667 (उ.प्र.) 75 वर्षीय श्री त्रिलोकचन्द कोठारी (जैन) को पी-एच.डी. औद्योगिक जगत में नाम कमाने के बाद कोटा के प्रसिद्ध समाजसेवी 75 वर्षीय श्री त्रिलोकचन्द कोठारी (जैन) ने शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है। उनके द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबन्ध 'दिगम्बर जैन समाज - वैचारिक विकास एवं सामाजिक दर्शन : बीसवीं सदी का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर कोटा खुला विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई है। कोठारी ने यह शोध कार्य डॉ. ब्रजकिशोर शर्मा, सह आचार्य एवं विभागाध्यक्ष - इतिहास विभाग, कोटा खुला विश्वविद्यालय, कोटा के निर्देशन एवं मार्गदर्शन में पूरा किया है। अपने शोध प्रबन्ध में उन्होंने जैन धर्म की उत्पत्ति व विकास का बीसवीं सदी के अन्त तक का विश्लेषण किया है। यह शोध प्रबन्ध सात अध्यायों में विभाजित है तथा इसे तैयार करने में 63 पुराण एवं ग्रन्थ, अंग्रेजी में प्रकाशित 31 पुस्तकों एवं अनेको पत्र-पत्रिकाओं से सन्दर्भ लिया गया है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परिवार की ओर से उन्हें हार्दिक बधाई। 76 अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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