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विदेशियों ने उजागर किया और 'खारवेल एक राष्ट्रवादी जैन सम्राट था, जिसने विदेशियों के आक्रमण से मगध को बचाया था', इन तथ्यों को जैन इतिहासकार प्रकाश में नहीं ला पाये। कुछ विदेशवासी इसे घोषित कर रहे हैं। मूर्तियों के विध्वंस, पांडुलिपियों के विनाश, तीर्थ स्थानों पर बलात् कब्जा कर लिये जाने तक को आज हम रिकार्ड नहीं कर पाये है। इसके लिये हम किसी से लड़े नहीं, किन्तु यह कहने की स्थिति में हमें होना चाहिये कि यह हमारी लूटी हुई सम्पत्ति है। 'अफगानिस्तान का राजकुमार आर्द्रक श्रमण चिंतन समर्थक था', संभवत: यह हमनें जोर - शोर से उजागर किया होता तो अफगानिस्तान का एक बहुत बड़ा समूह तालिबान के खिलाफ खड़ा हो गया होता और 21वीं सदी के मुँह पर मूर्तिहंता सदी होने की कालिख न पुती होती। क्या कोई जैन इतिहासकार दावे के साथ कह सकता है कि अफगानिस्तान में एक भी जैन मूर्ति नहीं थी? इस संभावना को भी नहीं नकारा जा सकता कि वहाँ जैन मूर्तियाँ रहीं होंगी जिनका हमें पता नहीं है। ये सब वे तथ्य हैं जो इस ओर इशारा कर रहे हैं कि समस्त जैन संघ को अपने इतिहास को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिये, भले ही 2-4 पंचकल्याणक हम न कर पायें। मूर्तिहंताओं का साहस अब बढ़ता ही जा रहा है। मोहम्मद गजनवी के बाद 2 मार्च 2001 का दिन इस क्रम का सबसे काला दिन है जब घोषित रूप से मूर्ति विनाश का तांडव रचा गया। मुझे भय है कि मूर्तिहंता कोई पागल किसी दिन कोई मिसाइल का मुँह गोम्मटेश्वर की मूर्ति की ओर न मोड़ दे। यह सोच घृणित है। समस्त विश्व को आज ही जागरूक होकर इस पर साहसिक प्रतिबन्ध लगाना चाहिये, अन्यथा हम सब देखते रह जायेंगे।
जैन विद्या संगोष्ठी का यह समागम जैन इतिहास पर छाई भ्रांतियों को दूर करने, ज्ञान - विज्ञान के लुप्त पृष्ठों को उजागर करने में सहायक हो, इस मंगल कामना के साथ अपने विचारों को विराम देता ।
संगोष्ठी के प्रथम सत्र के मुख्य अतिथि पद के लिये मुझे आमंत्रित कर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने सीधा संदेश दिया है कि वह जैन इतिहास के लिये कुछ मूलभूत रूप से करना चाहता है। ज्ञानपीठ के नीति नियोजकों को धन्यवाद व बधाई। आप सबका पुन: आभार।
3.3.2001
- सूरजमल बोबरा
साहित्याचार्यजी का चिर - वियोग
न्यायाचार्य पण्डित गणेशप्रसाद वर्णी के कृपापात्र मानस पुत्र, अनेकानेक पराणों. ग्रन्थों और स्तोत्र संग्रहों के भाषानुवादक, जैन वांगमय के महान अध्येता तथा जैन विद्याओं के आमरण अवदानी, स्वनामधन्य विद्वान् पंडित, डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य अब हमारे बीच नहीं रहे। फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी, गुरुवार, 8 मार्च 2001 की रात्रि में सवा बजे, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर में
बड़े बाबा को नमन करते हुए उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया। उनके जाने से बीसवीं शताब्दी की आगम अनुयायी पण्डित परम्परा का प्रमुख प्रकाश-स्तम्भ ढह गया।
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परिवार की उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि।
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अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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