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पार्श्वनाथ विद्यापीठ कदाचित्, सर्वाधिक पुराना और अच्छा संस्थान है जो आज अर्थाभाव से गुजर रहा है। चूंकि मैं अभी यहाँ कार्यरत हूँ, इसके विषय में कुछ कहना उपयुक्त नहीं होगा। जैन विश्व भारती संस्थान डीम्ड युनिवर्सिटी है, मान्य विश्वविद्यालय के रूप में उसने निश्चित ही अपना अच्छा स्थान बना लिया है, यह हमारे गौरव का विषय है, पर उसका वह विकास नहीं हो पा रहा है, जो होना चाहिये था। एल.डी और बी.एल. संस्थानों में कोई अर्थाभाव नहीं है, पर अधिक गतिमान भी नहीं है। वैशाली संस्थान सरकारी तंत्र से जुड़ा हुआ है और वह रेंगता - रेंगता घिसट रहा है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ - इन्दौर, कुन्दकुन्द भारती-दिल्ली और प्राकृत शोध संस्थान - श्रवणबेलगोला अपने संसाधनों की सीमा में रहकर ठीक काम कर रहे हैं। यदि उन्हें अवसर मिल सके तो ये संस्थान अच्छा काम कर सकते हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ - इन्दौर जैसे अन्य शोध संस्थानों पर भी हमारी दृष्टि जा रही है जहाँ संभावनाएँ खोजी जा सकती हैं। श्री बी.एल. जैन, श्री लालभाई दलपतभाई, श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल, श्री नेमिनाथ जैन जैसे धीर और भी सम्पन्न व्यक्ति यदि सचेष्ट हो जायें तो संस्थान प्रगतिपथ पर बढ़ सकते हैं।
इन सभी संस्थानों की आंतरिक और बाह्य स्थिति पर निष्पक्ष मंथन होना आवश्यक है। यह मंथन मात्र आलोचनात्मक न हो। उसका सकारात्मक दृष्टिकोण निश्चय ही हमारा सम्बल बनेगा। किसी भी संस्थान के विषय में सही आलोचक बनकर कुछ कहना विरोध का झंझावात खड़ा करना है। हर व्यक्ति और संस्थान अपने विरोध में उठे स्वर का विरोध करेगा और उसका समाधान प्रस्तुत करेगा। अनेकान्तवाद की दृष्टि से हम उसकी उपेक्षा भी नहीं कर सकते। यहाँ हमारा यह मन्तव्य भी नहीं है कि संस्थानों की कमियाँ ही दिखलाई जायें। जो संस्थान जितना भी काम कर रहे हैं, प्रशंसनीय है। पर यह भी आवश्यक है कि संस्थान अब आत्म मंथन करें, अन्तरावलोकन करें और जैन साहित्य और संस्कृति के प्रचार - प्रसार में अपना योगदान दें।
आज जैन साहित्य और संस्कृति की मूल परम्परा से सम्बद्ध विद्वान् मिलना कठिन होता जा रहा है। ऐसे विद्वान् जो संस्कृत, प्राकृत, दर्शन और इतिहास, पुरातत्त्व में निष्णात हैं तथा अंग्रेजी में भी अच्छी गति हो उनकी निरन्तर कमी होते रहना हमारी चिन्ता का विषय होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में अब यह आवश्यक है कि हम वस्तुनिष्ठ होकर विद्वानों को तैयार करने का अभियान प्रारम्भ कर दें और उन सभी गतिरोधों को दूर कर पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जायें।
संस्थानों के संचालन में विद्वान् और श्रेष्ठी के साथ ही साधु सम्प्रदाय और समाज का भी समन्वित सहयोग होना आवश्यक है। जातीय और सम्प्रदायवाद से ऊपर उठकर खुली मानसिकता के साथ जब तक शोध संस्थानों का विकास नहीं किया जायेगा और प्राच्य भाषाओं के निष्णात् विद्वानों को तैयार नहीं किया जायेगा तब तक हम अपनी संस्कृति को सुरक्षित नहीं रख सकेंगे।
आज मन्दिरों और पंचकल्याणकों की बाढ़ सी आ रही है। साधु सम्प्रदाय में यह प्रतिस्पर्धा लगी हुई है कि कौन कितने मन्दिर खड़ा कर सकता है? समाज का पैसा पानी की धार सा बह रहा है, उसके प्रदर्शन से नई - नई आपत्तियाँ भी आ रही हैं। काश! शैक्षणिक जगत को समृद्ध करने का बीडा यह साधु सम्प्रदाय उठा लेता। समाज में क्रांति लाने के लिये शिक्षा जगत में क्रांति लाना नितान्त आवश्यक है।
इस प्रकार नूतन मन्दिर निर्माण, पंचकल्याणक, प्रकाशन, व्यवस्थापन, सेवा संयोजन, संस्कार - जागरण, नैतिकता, पुरस्कार संयोजन आदि जैसे विषयों पर बहस होनी चाहिये। समाज में सचेतनता और जीवतता बनी रहे, इसके लिये यह सब आवश्यक है। सन्दर्भ - 1. परमात्म प्रकाश, दोहा - 14.
4.3.2001
- डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर'
निदेशक - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, वाराणसी (उ.प्र.)
अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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