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मत-अभिमत
अर्हत् वचन बहुत पसन्द आई। यह पत्रिका Jain Antiquary या जैन सिद्धान्त भास्कर जैसी है और पढ़ने में बहुत प्रसन्नता होती है। मुझे देखकर प्रसन्नता हुई कि ऐसी पत्रिका भी यहाँ छप रही है। 20.01.01
Y.K. Jain 51, IEHCS LAYOUT, 5yh Block, 7th main Vidyaranyapura, Bangalore-560097
Received with thanks a copy of your esteemed journal Arhat Vacana' Vol. 13. No.- 1. I very much appreciate the contents of English Section as it is very informative. The article entitled 'Solar System in Jainism and Modern Astronomy by the learned author Dr. Rajmal Jain attracts my attention. While comparing Jaina Astronomy with modern astronomy, the author has intermixed his layman's view about Jaina astronomy with his scholarly understanding of modern astronomy. Had you refereed this paper to me. He must have gone through my work - Jaina Astronomy' and would have overhaulled the contents of his research paper as a whole. 13.02.01
. Dr. S.S. Lishk
Patiala
अर्हत् वचन के जनवरी 2001 में श्री राजमलजी जैन, अहमदाबाद द्वारा लिखित विद्वत्तापूर्ण लेख The Solar System in Jainism and Modern Astronomy पढ़ा। जैन ज्योतिष शास्त्र में वर्णित ग्रहों की स्थिति दूरी व आधुनिक एस्ट्रोनामी का तुलनात्मक वर्णन पढ़ा। कई वर्षों से यह अंतर जानने की अभिलाषा थी। जैन विज्ञान को ऐसे आधुनिक विज्ञान के वैज्ञानिकों द्वारा ही स्पष्ट किया जा सकता है। महत्वपूर्ण लेख के लिये धन्यवाद, साधुवाद। 15.2.01
. इंजी. किरणकुमार जैन, अधीक्षण यंत्री - सारणी क्वा. नं. बी-7, पोस्ट सारणी जिला बैतूल (म.प्र.)
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ निश्चय ही दिगम्बर समाज द्वारा संचालित शोध संस्थाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अर्हत् वचन के जनवरी - मार्च 2001 अंक के सम्पादकीय में आपके विचार भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। निश्चय ही अपनी अधिकतर शोध संस्थानों की स्थिति देखकर हमें दुख ही होता है।
इसी अंक में प्रकाशित 'Jainism Abroad' से हमें भारत के बाहर जैनधर्मावलम्बियों की वर्तमान स्थिति के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त हुई। डॉ. भुवनेन्द्रकुमार जैन, कनाडा के लेख से प्राप्त जानकारी का हम भारत में उपयोग कर सकते हैं। डॉ, राजमल जैन ने जैन तथा आधुनिक खगोल विज्ञान की बिना किसी पक्षपात के अनेकान्त दृष्टि से सम्यक् चर्चा की है। यही जैन चिन्तन की विशेषता होनी चाहिये। श्री रवीन्द्र मालवजी ने श्री वीरचन्द्रराघवजी गांधी की याद ताजा कर हमें आत्म सम्मान से भर दिया। श्री सुरेन्द्र बोथराजी का लेख जैनों की अल्पसंख्यक स्थिति के सन्दर्भ में बहुत ही सामयिक है और आशा है कि इससे हमारे जैन तथा जैनेतर बन्धुओं की काफी भ्रांतियाँ दूर हो गई होंगी। वास्तव में सभी संकलित लेख शोधपूर्ण हैं, सम्प्रति अर्हत् वचन की गरिमा के अनुरूप हैं। 20.02.01
. आदित्य जैन, अध्यक्ष - दि. जैन महासमिति, लखनऊ संभाग
42/22, साकेत पल्ली, लखनऊ-226001
अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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