Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 109
________________ प्रतिक्रिया 4 जैन शोध संस्थानों की समस्यायें एवं समाधान सम्पादकीय एवं सत्र विचारोत्तेजक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा आयोजित जैन विद्या संगोष्ठी (3-5 मार्च 2001 ) में 'जैन शोध संस्थानों की समस्यायें एवं समाधान' शीर्षक सत्र अत्यन्त विचारोत्तेजक एवं सार्थक रहा। अर्हत वचन के 13 (1) जनवरी 2001 का सम्पादकीय मन को झकझोरने वाला है। इसी क्रम में मैं अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। सारे भारतवर्ष में सैकड़ों स्थानों पर फैली हमारी प्राचीन पाण्डुलिपियाँ / दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थों की दशा अत्यंत शोचनीय एवं दयनीय स्थिति में है। कुछ स्थान / संस्थान आवागमन में असुविधा, प्रचार प्रसार, परस्पर वात्सल्य भाव एवं अर्थाभाव के कारण अभी भी प्रकाश में नहीं आ पाये हैं जिनका तथा उनमें संचय की गई बहुमूल्य / अमूल्य जिनागम / पोथियों की कोई खोज खबर नहीं है। कुछ संस्थान हमारे ही धर्मावलम्बियों के अनधिकृत अतिक्रमण एवं कब्जे से ग्रसित होने के कारण समस्याओं से जूझ रहे हैं। कुछ तीर्थों पर प्राचीन पाण्डुलिपियाँ गर्भग्रहों में दबी या यत्र तत्र बोरों में बन्द एवं बिखरी पड़ी हैं, जिनकी खोज क्षेत्रीय आधार पर की जानी चाहिये। कुछ संस्थानों पर ऐसे व्यक्ति कुण्डली जमाये बैठे हैं जो ताला खोलने में दुखी होते हैं या द्वार से शोधार्थी को अपशब्दों का प्रयोग करके भगा देते हैं। कई संस्थानों पर धनराशि की कमी तो नहीं है पर वे संस्थान किसी की जेब की शोभा बने हुए हैं। संचित धनराशि संस्थानों के जीर्णोद्धार में न लगाकर मनमाने ढंग से खर्च की जा रही है। - 2600 वीं भगवान महावीर जन्मजयंती के लिये सरकार ने 100 करोड रुपये निर्धारित किये हैं लेकिन जिनवाणी के संरक्षण, संवर्द्धन की ओर हमारा ध्यान अभी भी नहीं है इस वर्षगांठ पर अगर हमारी गांठ खुल गई तो जैन समाज की आजादी की वर्षगांठ मान लेने में हमें प्रसन्नता होगी अभी भी हमारे वक्ता भाषणों के रिहर्सल कर रहे हैं, लेखक कलग पैनी कर रहे हैं, भावी योजनाओं पर नई शब्दावली के गिलाफ चढ़ रहे हैं, दिलकश नारे तैयार किये जा रहे हैं, लेकिन समाज की नींद तो अभी टूटी ही नहीं है हमें निश्चयात्मक रूप से जान लेना चाहिये कि हमारी दुर्बलता की डोरियाँ हमारे संकल्प की दुर्बलता के ठीक अनुपात में मजबूत होती है हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अकर्मण्य, हतभाग, अज्ञानी, दुराभिमानी बने बैठे हैं और यह रोग हमारी आत्माओं में घुस गया है और हम स्वयं को रोगी मानने के स्थान पर गले में आला डाले चिकित्सक बन घूम रहे हैं। जिन राजनैतिक और सामाजिक नेताओं की ऊंगलियाँ हमारी नब्ज टटोल रही हैं, उनका उपचार कौन करेगा, हमें इसकी चिंता खाये जा रही है। विद्वत् परिषद दो फांक हो गई। शास्त्री परिषद में भी वितंडावाद फैलाकर अलगाव की स्थिति लाई जा रही है। वस्तुस्थिति यह है कि एक अधिक रोगी एक न्यून रोगी का उपचार करने में लगा हुआ है और मजा यह है कि अपने अपने रोग से बेखबर दोनों एक दूसरे को ही बीमार मान रहे हैं विचित्र भले लगे, किन्तु सच्ची बात यही है । हर संस्थान / शोध संस्थान की अपनी अपनी शिकायतें हैं जैसे हमारे संस्थान में कोई अच्छा व्यवस्थापक नहीं है, आता भी है तो टिकता नहीं है। जो व्यवस्थापक टिके हैं, वे इसे राजनीति का अड्डा बनाये हुए हैं। संस्थानों के मालिक शोधाधिकारी से घर के काम कराना चाहते हैं जैसे विद्वान् सेठजी का नौकर हो शोध संस्थानों / संस्थानों में चारों ओर धोखा ही धोखा है। आपको इन शब्दों को पढ़कर आश्चर्य होगा क्योंकि कुछ ऐसे संस्थान भी हैं जिनके अड़ोस पड़ोस में रहने वालों तक को पता नहीं कि यहाँ कोई संस्थान भी है। कुछ संस्थान पारिवारिक संपत्ति के रूप में हैं जिन्हें सामाजिक जामा पहनाकर गोटी मोटी रकमें चन्दे के रूप में देश / विदेशों से एकत्रित की जा रही हैं। धोखा न दो यह तो जरूरी है ही, मगर उससे ज्यादा जरूरी है कि धोखा न खाओ गलत और पराये नारों से गलत और पराये नेतृत्व से, गलत और पराये चेहरों से गलत और पराये सपनों से गलत और पराये आदशों से हमें धोखा देने के लिये एक पूरा का पूरा षड्यंत्र चक्र गतिमान है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम पंडित, विद्वान्, साधु, श्रेष्ठी संस्थानों के नाम से सामाजिक एवं नैतिक अपराध कर रहे हैं। अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International - For Private & Personal Use Only 99 www.jainelibrary.org

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