Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ भार्गव जैन दर्शन को एक गतिशील दर्शन मानते हैं वे लिखते हैं कि "मैं मानता हूँ कि जैन दर्शन में एक गतिशील दर्शन होने के बीज उपस्थित हैं। उनमें सत्य के नित्य नवीन स्वरूप को उद्घाटित करने का पूर्ण अवकाश है। उसे मानवीय तथा तार्किक धरातल पर प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। पौराणिक अतिलौकिकता उसका अनिवार्य अंग नहीं है। आगम प्रामाण्यवादी होने पर भी जैन दर्शन सत्य को आगम से बंधा हुआ नहीं मानता महावीर जैन परम्परा में उत्पन्न हुए किन्तु उन्होंने सत्य को किसी गुरु या आगम से नहीं, अपने अनुभव से जाना। यह व्यक्ति स्वातंत्र्य के ज्वलंत प्रमाण है। "2 दर्शन इत्यादि विषयों की अपेक्षा विज्ञान आदि विषयों में आज की प्रतिभायें ज्यादा भाग ले रही हैं। फलस्वरूप प्राच्य विद्या के क्षेत्र में तृतीय तथा चतुर्थ श्रेणी की प्रतिभा वाले विद्यार्थियों की भरमार होने से भी यह क्षेत्र पिछड़ रहा है। प्रतिभायें इन विषयों के शोध इत्यादि की तरफ क्यों नहीं आती? इसका एक कारण यह माना जाता है कि इन कार्यों की कोई Commercial Value नहीं है और दूसरा कारण वह है जो प्रो. दयानन्द भार्गव लिख रहे हैं "सत्य के नित्य नूतन पक्ष उद्घाटित करने में तत्पर व्यक्ति तथा समाज को जागरूक तथा सृजनशील रहना होता है किन्तु पुराने सत्य को दोहराने मात्र में न जागरूकता अपेक्षित है न सृजनशीलता दर्शन की स्थिति आज पुराने सत्य को दुहराने मात्र की है। इसलिये दर्शन देश की प्रतिभाओं को आकृष्ट नहीं कर पा रहा। यह स्थिति दर्शन सहित सभी प्राच्य विद्याओं की है। जो सत्य को जितनी ही नयी से नयी अपेक्षाओं से देख सकेगा, वह सत्य की उतनी ही अनेकान्तात्मकता को उजागर कर पायेगा। इसके लिये सतत बौद्धिक गतिशीलता आवश्यक है। "3 जैन शोध के क्षेत्र में कार्य तो बहुत हो रहे हैं किन्तु विशाल समुद्र में वे बूँद सदृश हैं। जैन धर्म में तत्त्वार्थसूत्र सर्वाधिक प्रसिद्ध व पठनीय है। किन्तु उसी ग्रन्थ की टीकाओं पर उत्कृष्ट शोध कार्य आज तक नहीं हुआ। इस बात को आज के युग के महान् मनीषी पद्मभूषण पं. बलदेव उपाध्याय खुद कह रहे हैं वे लिखते हैं "अभी तक किसी भी जैन विद्वान् ने इन समग्र टीकाओं ( तत्वार्थसूत्र की) का अध्ययन तुलनात्मक दृष्टि से करने का उद्योग ही नहीं किया है। पंडित सुखलालजी का कार्य प्रशंसनीय होने पर भी उतना गम्भीर नहीं है। आशा है पाश्चात्य पद्धति से परिचित कोई आलोचक इन समस्याओं के निर्धारण को अपने अनुशीलन का विषय बनायेगा। 24 इस प्रकार के विचारों को पढ़ने से स्वमूल्यांकन का अवसर मिलता है। डाँ अनुपमजी की सम्पादकीय भी वास्तव में हम सभी को इसी स्वमूल्यांकन को विवश कर रही है। सन्दर्भ 1. माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रंथालय, बम्बई, 1938 2. आचार्य श्री देशभूषण अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 39 3. 'आधुनिक सन्दर्भ में जैन दर्शन के पुनर्मूल्यांकन की दिशायें' आचार्य श्री देशभूषण अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 38 4. पुरोवाक्, पृ. XII XIII तत्त्वार्थसूत्र, अनुवाद सहित, संपादक अनुवादक भारती नई दिल्ली 1997 6.4.2001 94 Jain Education International - - For Private & Personal Use Only डॉ. सुदीप जैन, प्रकाशक - कुन्दकुन्द ■ कुमार अनेकान्त जैन शोध अध्येता, जैन विश्व भारती संस्थान (विश्वविद्यालय), लाडनूं 341306 (राज.) अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 - www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120