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पुस्तक समीक्षा मध्यप्रदेश का जैन शिल्प
पुस्तक : मध्यप्रदेश का जैन शिल्प लेखक : नरेशकुमार पाठक, संग्रहाध्यक्ष - केन्द्रीय संग्रहालय, इन्दौर प्रकाशक : कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, तुकोगंज,
इन्दौर - 452001 मूल्य : रु. 300/- पृष्ठ : XVI + 336 + 20 Plates समीक्षक : सूरजमल बोबरा, सदस्य - अर्हत् वचन सम्पादक मंडल,
9/2 स्नेहलतागंज, इन्दौर किसी शोध संस्थान के द्वारा कोई पुस्तक जब प्रकाशित की जाती है तो पाठक की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ जाती है। अधिकतम पाठक उसे विषय का अधिकृत शोध ग्रंथ मान लेता है।
. निश्चयपूर्वक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन एक अभिनंदनीय प्रयास है। लेखक श्री नरेशकुमार पाठक अपनी पुरातत्त्वीय खोज यात्रा में विस्मृत होती हुई जैन परम्परा व इतिहास को सम्हालने - समझने के महत्वपूर्ण कार्य को आकार दे गये हैं। जैन परम्परा के शिल्पों और ग्रन्थों का विनाश विदेशी आक्रांताओं, भिन्न विचारों व दार्शनिक पीठिकाओं के समर्थकों व प्राकृतिक विपदाओं ने बहुतायत में किया है, ऐसे में उस परम्परा का एक- एक संदर्भ सूत्र अनमोल मोती है
और उसे सहेज कर रखा जाना चाहिये। ऐसे बहुत से प्रमाण हैं जिसमें जैन विद्या के केन्द्रों को दूसरे विचार के लोगों ने बलात् हथिया लिया और शिल्पों को चिह्न मिटाकर या तो अपना आराध्य बना लिया या उन्हें जमींदोज कर दिया गया। अत: एक एक शिल्प को पहचानना और उनका अधिकृत व्यक्ति द्वारा रिकार्ड तैयार किया जाना अत्यावश्यक है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, श्री नरेशकुमार पाठक एवं प्रकाशन के आर्थिक सहयोगी त्रय श्री सिद्धकूट चैत्यालय टेम्पल ट्रस्ट, सोनीजी की नसिया - अजमेर, श्री शंभुकुमारजी कासलीवाल - मुम्बई व श्री संजय जैन - इन्दौर का जैन संघ सदैव आभारी रहेगा कि मध्यप्रदेश के विशाल अंचल में बिखरे जैन शिल्पों से उन्होंने हमें रूबरू करा दिया है। वनांचलों, नदी - किनारों, भूले बिसरे प्राचीन स्थलों, तीर्थों, संग्रहालयों में दबे - पड़े शिल्प रत्नों को एक साथ अपने टेबल पर देखना अत्यंत रोचक व अद्भुत अनुभव है। जैन संघ को यह सदैव ध्यान रखना होगा कि जैन चिंतन के निश्चय व व्यवहार के चरित्र व ज्ञान पक्ष को सम्हालने के साथ अपनी परम्परा व इतिहास को भी उसे अनावृत्त करना होगा, उसे सहेजना होगा। प्राचीन काल में जो विनाश होना था, वह हो चुका किन्तु अब पुन: उसकी पुनरावृत्ति न हो। अन्यथा तीर्थकरों की मूर्तियाँ पुन: खंडित कर दी जायेंगी, कई मूर्तियाँ मस्जिदों व मन्दिरों की दीवालों व सीढ़ियों में चुन दी जायेंगी, पद्मावती की मूर्ति काली देवी में बदल जायेंगी या किसी भूकम्पन बाढ़ में धरती में समा जायेगी। सूचना प्रौद्योगिकी के इस विकसित युग में यह विचार करना आवश्यक है कि क्या हम अपने संदर्भो को किसी प्रकार सूचीकृत कर सकते हैं। पुस्तक प्रकाशन, चित्र प्रकाशन तो होना ही चाहिये, साथ ही दृश्य व श्रव्य रूप से कैसे यह सन्दर्भ जनसुलभ हों, यह मार्ग भी प्रशस्त होना चाहिये।
__ अच्छे प्रयासों का अभिनन्दन होना ही चाहिये किन्तु तीन बातों की ओर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का ध्यान दिलाना चाहूँगा - 1. पुस्तक में चित्रों का प्रकाशन अच्छा नहीं हुआ है। कई शिल्प मूल रूप में जितने प्रभावशाली
हैं, चित्र में वे अपना प्रभाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं। मूक पत्थरों में शिल्पी ऐसी प्राण प्रतिष्ठा
अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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