Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 30
________________ अपने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था और सर्वाधिक वर्षावास भी उन्होंने उस नगर में किये थे तथा उनका निर्वाण पावा नगरी में हुआ था । बौद्ध साहित्य के अध्ययन से विदित होता है कि महात्मा बुद्ध के समसामयिक विचारकों में आत्मा और लोक के सम्बन्ध में विभिन्न कल्पनाएं थीं। दीर्घ निकाय के 'ब्रह्मजाल सुत्त के अनुसार निगण्ठ नातपुत आत्मा और लोक को शाश्वत मानते थे उन्हें चातुर्याम संवरवादी भी बतलाया गया है, क्योंकि यह ब्रह्मचर्य के साथ साथ अपने से 250 वर्ष पूर्वगामी 23वें तीर्थकर पार्श्व द्वारा उपदिष्ट अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार यामों का स्वयं पालन करते थे तथा दूसरों को भी उनका पालन करने का उपदेश देते थे। उनका कहना था कि इनका पालन करने से संसार में पूर्ण सुख शान्ति हो सकती है। उन्होंने तपस्या करने पर बल दिया और कहा कि सांसारिक सुखों की अपेक्षा तपस्या में अधिक सुख है क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो मगध के राजा बिम्बिसार श्रेणिक तपस्वियों की अपेक्षा अधिक सुखी होते वे 'परोपदेश कुशल' नहीं थे अपितु केवल उन्हीं बातों को करने का लोगों को सरल सुबोध जनभाषा में उपदेश देते थे जिन्हें कि वह स्वानुभव के आधार पर लोकहितकारी समझते थे । बौद्ध ग्रन्थों से यह भी स्पष्ट है कि निगण्ठ नातपुत्त अपने समय के उच्च कोटि के तार्किकों में थे। उनकी तर्क एवं चिन्तन प्रणाली वैज्ञानिक ढंग की थी। उनका कहना था कि किसी वस्तु या व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई मत निर्धारित करने से पहले अथवा किसी विषय में कोई निर्णय लेने के पूर्व उसके सब पहलुओं अच्छाई-बुराई, पक्ष-विपक्ष, लाभ हानि पर पूरी तरह विचार कर लेना चाहिये। उनकी यह चिन्तन प्रणाली स्याद्वाद के नाम से प्रसिद्ध है। चूंकि उन्होंने चिन्तन के पहलुओं को सात वर्गों में विभाजित किया था, अतः इसका 'सप्तभंगी न्याय' के नाम से भी उल्लेख किया गया है। - 'मज्झिम निकाय' तथा 'अंगुत्तर निकाय में यह उल्लिखित है कि निर्ग्रन्थ साधु अपने गुरु निगण्ठ नातपुत्त को 'सर्वज्ञ' बतलाते थे। उनकी यह लोक प्रसिद्धि थी कि चलते हुए या खड़े रहते हुए, सोते हुए या जागते हुए हर स्थिति में उनकी ज्ञान दृष्टि कायम रहती थी। इन्हीं ग्रन्थों में यह भी बतलाया गया है कि निगण्ठ नातपुत्त का कहना था कि मनुष्य जिन सुख दुःखों का अनुभव करता है वे उसके पूर्व कर्मों के फल हैं। अतः तपस्या द्वारा पूर्व दुष्कर्मों के फल को नष्ट करके तथा वर्तमान में कोई अन्य दुष्कर्म न करके ही मनुष्य भविष्य में आवागमन के चक्र से छुटकारा पा सकता है। उनका सिद्धान्त था कि जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा। उनका यह कर्मवाद का सिद्धान्त मनुष्यों को न केवल उनके सुख - दुःखों के लिये उत्तरदायी ठहराने वाला है, अपितु उन्हें सत्कर्म करने के लिये प्रेरणा देने वाला भी है। उनका यह सिद्धान्त किसी भी प्राणी को अकर्मण्य या निराशावादी बनाने वाला नहीं है, अपितु सब में उत्साह और आशा का संचार करने वाला है यह सिद्धान्त इतना युक्तिसंगत और सार्वकालीन है कि आज के इस वैज्ञानिक युग में भी इसकी वही उपादेयता है जो आज से 2600 वर्ष पूर्व निगण्ठ नातपुत्त महावीर के समय में थी । प्राप्त 28 - यही कारण है कि आज भी ई.पू. 599 में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वर्तमान बिहार प्रदेश में वैशाली के समीपस्थ कुण्डग्राम में जन्म लेने वाले, 'जीयो और जीने दो' में विश्वास करने वाले, 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् पर आचरण करने वाले और अपना जीवन सर्वसत्वानां हिताय, सर्वसत्वानां सुखाय' अर्पण करने वाले इस महामानव वर्द्धमान महावीर के प्रति असंख्य जन श्रद्धा से नत मस्तक हैं। 17.3.01 Jain Education International - - For Private & Personal Use Only अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 www.jainelibrary.org

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