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अर्हत्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
भारत के हृदय स्थल पर स्थित उत्तरी मध्यप्रदेश के प्राचीनतम क्षेत्रों में से एक ग्वालियर क्षेत्र कई शताब्दियों से साहित्य, संगीत और कला का महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। प्राचीन काल से ही ग्वालियर क्षेत्र के साथ अनेकानेक साम्राज्यों, कई महत्वपूर्ण राजघरानों का समय - समय पर निकट का संबंध रहा है । परन्तु ग्वालियर क्षेत्र से भी कहीं अधिक ग्वालियर नगर की परम्पराओं को सुस्पष्ट स्वरूप देने तथा उन्हें सयत्न, सुदृढ़ बनाने में सबसे अधिक योगदान ग्वालियर के तोमर शासकों का रहा। तोमरों का दिल्ली राज्य में अन्त होने के दो शताब्दी बाद ग्वालियर में तोमरों ने अपने स्वाधीन राज्य की नींव डाली। ग्वालियर में स्वतंत्र सत्ता के संस्थापक वीरसिंह देव ( 1375-1400 ई.) हुए। वीरसिंह देव ने उस राजवंश की नींव डाली जिसने ग्वालियर दुर्ग पर लगभग सवासौ वर्षों तक राज्य किया ।
वर्ष 13, अंक 2, अप्रैल 2001, 51-56
रइधू रचित पोथी चित्र में जैन चित्रकला
■ डॉ. जया जैन*
तौमर कालीन ग्वालियर में साहित्य चित्रकला और शिल्पकला अपनी उन्नति के शिखर पर पहुँची थी। 14 वीं 15 वीं शताब्दी में ग्वालियर जैन कला की प्रखर गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा, इस काल में पहाड़ी को काटकर विशाल जैन प्रतिमाओं का निर्माण हुआ तथा अनेकानेक जैन मूलपाठों की प्रतिलिपियाँ हुई । "
ग्वालियर के तोमरों की धार्मिक क्षेत्र में उदार नीति का प्रस्फुटन तोमर वंश के पराक्रमी राजा डूगरेन्द्रसिंह व कीर्तिसिंह के समय विशेष रूप से रहा । ' डूगरेन्द्रसिंह (वि.सं. 1481 ) तोमर वंश के महानतम राजाओं में से थे। वे पराक्रमी भी थे और साहित्य कला, संगीत के आश्रयदाता भी । मित्रसैन अपने शिलालेख में जहाँ उन्हें युद्ध क्षेत्र में परमशूर कहा है, वहाँ अपने आश्रितों के लिये उन्हें कल्पवृक्ष के समान भी कहा है। "
डूगरेन्द्रसिंह तथा कीर्तिसिंह के राज्यकाल में ग्वालियर के जैन भट्टारकों ने जैन शास्त्रों का बहुत बड़ा संग्रह कराया था और अनेक दुर्लभ ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ कराई थीं। 7 डूगरेन्द्रसिंह के समय में जैन सम्प्रदायों को अत्यधिक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ ।
प्राचीनकाल में साहित्य लेखन व चित्रण की परम्परा भोजपत्र अथवा ताड़पत्र पर रहीं, ऐसी बहुत सी पाण्डुलिपियाँ आज भी उपलब्ध हैं। कागज के आविष्कार के साथ पाण्डुलिपियों के चित्रण में क्रांति आई एवं एक समृद्ध शैली का प्रारम्भ हुआ। सचित्र ग्रंथों की रचना विशेषकर जैन धर्म से अधिक संबंधित हैं। कागज का आधार मिलने पर चित्रों के विकास में उच्चस्तरीय परिवर्तन हुआ । कागज पर लिपिबद्ध की हुई 1346 ई. में लिखित सचित्र पाण्डुलिपि कल्पसूत्र हैं, जो लन्दन की इण्डिया लायब्रेरी में सुरक्षित हैं। " कागज की सचित्र पाण्डुलिपि की परम्परा ग्वालियर में भी प्रचलित रही है। सचित्र पाण्डुलिपि के मूलपाठ का प्रणयन तोमर राजा डूगरेन्द्रसिंह के राज्याश्रित महाकवि पंडित रइधू द्वारा हुआ। पंडित रइधू का सम्पूर्ण जीवन जैन श्रेष्ठियों के आग्रह पर ग्रंथ लिखने, पूजा अर्चना में आचार्य का काम करने व प्रतिष्ठा हेतु प्रतिष्ठाचार्य के रूप में व्यतीत हुआ। 10 रइधू के दीक्षागुरु भट्टारक यशकीर्ति थे। मेघेश्वरचरित से ज्ञात होता है कि उनके आशीर्वाद से ही रइधू को विचक्षण प्रतिभा प्राप्त हुई थी । भट्टारक यशकीर्ति ने कहा- 'मेरे प्रसाद से तू विचक्षण हो जायेगा' और यह कहकर मंत्राक्षर किया। उन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा से लगभग 33 ग्रन्थों का प्रणयन ( 1380 1480 ) किया था। जिनमें से 24 ग्रंथ उपलब्ध हैं। 12
* एफ-3, शासकीय आवास कम्पू, ग्वालियर - 474001
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