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स्वरूप को जानने के लिये पूर्व शर्त के रूप में जैन दर्शन के महत्वपूर्ण अंग हैं। धर्म क्या है, बिना सम्यक् ज्ञान के यह समझा नहीं जा सकता, ऐसा जैन दर्शन का आग्रह है और यही आग्रह जैन धर्म को विज्ञान के धरातल पर ले जाता है। यह अतिरंजन नहीं कि विज्ञान (Science) शब्द जिस अर्थ में आज प्रयुक्त है, वही आशय अगर वह भगवान महावीर के समय व्यक्त करता होता तो उनके दर्शन को संभवत: धर्म की नहीं, विज्ञान की संज्ञा मिलती। जैन धर्म स्वयं अपने आपमें एक पूर्ण विज्ञान है, इस बात को कहने से पूर्व, यहाँ विज्ञान की परिभाषा पर एक दृष्टि आवश्यक है -
Science - "Systematic knowledge of the Physical or material world gained through observation and experimentation".
अर्थात सूक्ष्म निरीक्षण और परीक्षण के द्वारा अर्जित भौतिक पदार्थों का संस्थित (व्यवस्थित) ज्ञान ही विज्ञान है। मगर यह सृष्टि तो केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं। द्रव्य जगत् (Physical or Material World) से भी अधिक महत्वपूर्ण अलग एक भाव जगत भी है। विज्ञान, जैसा कि इसकी परिभाषा कहती है, केवल द्रव्य जगत पर केन्द्रित है, भाव जगत को इसका विषय ही नहीं। यह सचमुच आश्चर्य की बात है। दूसरी ओर, जैन दर्शन केवल द्रव्य जगत का नहीं, केवल भाव जगत का भी नहीं, बल्कि दोनों के ही सूक्ष्मतम रूपों से साक्षात्कार करने का उपक्रम है। आध्यात्म का विषय संकुचित अर्थ में केवल भाव जगत बनता है मगर जैन दर्शन पदार्थ जगत की गवेषणा के माध्यम से भाव जगत के रहस्यों को अनावृत करता है और यही, विज्ञान की तरह, उसके वृहत् आकार का कारण है।
जीव (Soul), अजीव (Matter), पुण्य (Virtue), पाप (Sin), आस्रव (Influx of Karma), संवर (Arrest of the influx of Karma), निर्जरा (Liquidation of Karma), बंध (Bondage) ओर मोक्ष (Liberation) - ये नौ पदार्थ जैन आध्यात्म विद्या के मुख्य आधार हैं। इनमें से प्रथम दो दृश्यमान स्थूल जगत से सम्बन्धित हैं। पदार्थ की शाश्वतता (Indestructibility of the matter), क्रिया और प्रतिक्रिया (Action and Reaction). कारण
और परिणाम (Cause and Effect) एवं सापेक्षवाद और अन्तनिर्भरता (Law of relativity) जैसे मूलभूत वैज्ञानिक सिदधान्त जैन दर्शन की नींव में हैं और इस विश्लेषण के माध्यम हैं। केवल श्रद्धा प्रेरित और आस्था पर आधारित मान्यतायें जैन दर्शन में बहुत कम हैं।
इस लेख में विस्तार की जगह नहीं। फिर भी जैन दर्शन में जीव और अजीव, जो भौतिक पदार्थ हैं और जो विज्ञान का भी विषय है, के वर्गीकरण पर एक दृष्टि समीचीन होगी। (देखें सारणी)
जैन दर्शन विज्ञान है, इसलिये ही उसमें जीव के साथ अजीव का भी इतना विशद विवेचन है। उसके दीर्घकाय होने का भी यही रहस्य है। विज्ञान अपनी खोज की समाप्ति तक चलता रहता है। भौतिक, रसायन और प्राणि शास्त्र (Physics, Chemistry and Biology) और इनकी शाखाओं और उप शाखाओं की आकाशगंगा में आदमी खो जाता है । जैन दर्शन की थाह भी उसी तरह सबके लिये सुगम नहीं बनी। विज्ञान का अपना कलेवर होता है। जैन धर्म का विस्तार भी उसका अपना नहीं, विज्ञान का है। भगवान महावीर ने तो उसे केवल खोजा था, गढ़ा नहीं।
एलिजाबेथ शार्प ने जिस flaw की ओर इंगित किया है, वस्तुत: वह जैन दर्शन के सर्वगम्य और सर्वग्राह्य न बन पाने के कारणों की मीमांसा है।
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अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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